हिमशिखर धर्म डेस्क
काका हरिओम्
अभी कल मेरे पास किसी ने एक मैसेज फॉरवर्ड किया, जिसमें देश को क्या क्या नहीं कहा गया था. बुरा लगा सुनकर.
स्वामी विवेकानन्द के शब्द कानों में गूंजने लगे- ‘मेरे देशवासी जैसे भी हैं, मेरे अपने हैं.यदि उनमें अज्ञान है, तो हटाने के लिए और कोई नहीं आएगा. अगर मेरे पास उनके लिए समय नहीं है, तो दूसरा कोई क्यों आएगा. उसे भला क्या लेना-देना है.’
जो सज्जन वीडियो में संबोधित कर रहे थे, उनका कहना था,भारतीयों का चरित्र अत्यन्त निम्न कोटि का है. वे भूल गए शायद कि ऐसा पतन एक लंबी प्रक्रिया में होता है. वह इस सबके लिए सिर्फ वर्तमान को जिम्मेदार ठहरा रहे थे.अतीत को काट कर कभी वर्तमान की विवेचना या विश्लेषण नहीं हो सकता है. इसका अतीत अतीत 1947 के बाद से ही नहीं होता है. यह तो तब शुरू होता है जब शिक्षा नीतियों में योजनाबद्ध तरीके से परिवर्तन कर हमें अपनी मुख्यधारा से काट दिया गया. मैकाले का नाम हम सभी को याद होगा. उसे ईमानदार नौकर चाहिए थे, चरित्रवान् नागरिक नहीं.
इस कार्य में देश के तथाकथित बुद्धिजीवियों ने सक्रिय होकर या फिर मौन रह कर साथ भी दिया. जो जानते थे कि गलत हो रहा है, वह या तो चुप रहे या उनकी बात में दम नहीं था. सिर्फ आलोचना से कोई सकारात्मक परिणाम नहीं निकला करता. बल्कि उसकी सार्थकता पर गहरा प्रश्नचिह्न लग जाता है. उसकी बात की ओर कोई कान ही नहीं देता.
एक बात यहां विशेष रूप से विचारणीय है कि आलोचक की रोग के निवारण, समस्या के समाधान में क्रियात्मकरूप से भूमिका की जानकारी होना भी जरूरी है.
यहां यह भी ध्यान देना होगा अपनों के बारे में कुछ भी कहने से पहले कि पेट पर से कपड़ा हटाओ, तो अपना ही बदन नंगा होता है. जरा यह भी सोचिए कि आपने अपने देश को क्या दिया है, जो आप दूसरों से अपेक्षा कर रहे हैं. हिम्मत बढ़ाइए उनकी जो चरित्र निर्माण के कठोर कर्म में दिनरात लगे हुए हैं. जो हुआ उससे सीख लेकर नव- निर्माण में लग जाइए.