हिम शिखर ब्यूरो
परब्रह्म परमात्मा निराकार निर्विकार निश्कल आदि है। वह वर्णन का विषय ही नहीं है पर जब वह त्रिगुणात्मिका प्रकृति से संपर्क करता है, सगुण रूप होता है तब वह वर्णन के क्षेत्र में आता है। उस परब्रह्म की अग्नि, इन्द्र, वरुण, रुद्र आदि विभिन्न शक्तियों जो वेदों में वर्णित हैं वे सब प्रकृति से सम्पर्क करने के कारण ही हैं। इस ब्रह्माण्ड के जितने भी नाम और रूप हैं सब प्रकृति के हैं। इसलिए हम यह निस्संकोच कह सकते हैं कि वेदादि सब शास्त्र एक प्रकार से त्रिगुणात्मिका प्रकृति का वर्णन करते हैं।
इस दृष्टि से श्रीमद्भवगद्गीता में भगवान् कृष्ण अर्जुन को कहते हैं-हे अर्जुन! वेद त्रैगुण्य विषयक हैं, तू इस त्रैगुण्य से ऊपर उठ। यही तथ्य-‘द्वेविद्ये वेदितव्ये परा चैवापरा च’ में उजागर हुआ है। वहां वेदों को अपरा विद्या में दर्शाया गया है। अतः हम यह कह सकते हैं कि परमात्मा का कोई नाम और रूप नहीं है। भगवान् के सब नाम-रूप प्रकृति के हैं। इसी भांति जीवात्मा का भी अपना कोई नाम-रूप नहीं है। वेदों में परमात्मा के शरीर की कल्पना की गयी है। अथर्ववेद में बताया है कि उस ज्येष्ठ ब्रह्म की भूमि पादस्थानीय है, अन्तरिद्वा उदर है, द्युलोक मूर्धा है, सूर्य तथा चन्द्रमा चक्षु हैं, अग्नि मुखस्थानी है। वायु प्राणापान, चक्षु अंगों को रस प्रदान करने वाले अंगिरा हैं, दिशाएं श्रोत्रस्थानी होकर प्रकृष्ट ज्ञान के साधन हैं।
इस प्रकार परब्रह्म परमात्मा के शरीर की कल्पना की गयी है। इस ज्येष्ठ ब्रह्म के पुर शरीर में से एक-एक अंश लेकर मानव का शरीर बना। इस सम्बंध में अथर्ववेद 11 सूक्त द्रष्टव्य है। सब देवता जो परब्रह्म परमपुरूष की शक्तियां हैं, वे सब अंशरूप में इस मानव-शरीर में विराजमान हैं तो समस्त प्राणी उस भगवान् अंशी के अंश तो हो गए।
मानव तथा अन्य प्राणियों के शरीर पर यदि दृष्टिपात करें तो इस शरीर में जो भी क्रियाकलाप चल रहा है वह सब प्रायः मानव के अपने अधीन नहीं है। उदाहरणरूप में श्वास-प्रश्वास, अन्नपचन, रक्तानुधावन आदि जीवनीय तत्वों के क्रियाकलाप जीवात्मा के अधीन हैं, उस परमपिता परमात्मा के नियमानुसार चल रहा है। मन तथा इन्द्रियों की गतिविधि भी एक प्रकार से मनुष्य के अधीन नहीं हे। जो गुण जिसमें प्रमुख होता है तदनुसार इनका कार्य होता है। फिर प्रश्न पैदा होता है कि मनुष्य के अधीन क्या रहा, इसका एक शब्द में उत्तर है, इच्छा व कामना करना, वह भी त्रिगुण की सीमा में रहते हुए ही।
भगवान् ने त्रिगुणात्मक प्रकृति से सामग्री लेकर ये शरीररूपी कोठरियां बना दी हैं। इनकी सहस्त्रों श्रेणियां हैं पर मुख्य रूप से सात्विक, रजस् तथा तमस् ये तीन कोटि की हैं, जिनके घट-बढ़-मेल से अनन्त श्रेणियां हो गई हैं। जीवात्मा इन कोठरियां को चुनता है। इनमें सात्विक जीव अधिक स्वतंत्र है, पर अत्यधिक रजोगुणी व तमोगुणी जीव स्वतंत्र नहीं होते, अपने गुणों से संचालित होते हैं जो गुण परम पुरुष द्वारा सक्रिय है। इस प्रकार से भगवान् ही त्रिगुण के माध्यम से संचालन कर रहा है। अब प्रश्न पैदा होता है कि यदि चोर, ठग आदि भगवान् के अंश हैं तो इन्हें दण्ड क्यों दिया जाता है। इसका उत्तर यह है कि भगवान् इनके कर्मों का फल इन्हें देते हैं साथ ही ये रजोगुण व तमोगुण का परित्याग कर सत्त्व की ओर अभिमुख हों इसलिए इन्हें दण्ड देना उचित है।
सृष्टि की महान् से महान् व सूक्ष्म से सूक्ष्म र्निमिति में ये तीनों गुण सम्पृत्त हुए सदा कार्य कर रहे हैं। प्रत्येक वस्तु में उत्पत्ति, स्थिति व संहार प्रतिक्षण हो रहा है। इसलिए सब वस्तुओं में भगवान् के ब्रह्मा, विष्णु तथा रुद्र ये तीनों रूप् सदा विद्यमान होते हैं, परन्तु काल व परिस्थिति आदि की दृश्टि से किसी एक गुण व भगवान् के एक रूप की प्रमुखता होती है। इस दृष्टि से मानव समाज का विश्लेषण किया जाये तो हम यह पाते हैं कि व्यक्ति की तरह कोई समाज व जाति-निर्माण में रूचि रखती हैं तो कोई वैष्णव यज्ञ की स्थिरता व स्थिति स्थापकता के गुण वाली है तो कोई विनाश व संहार में रूचि रखती है। जिस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये चारों वर्ण समाविष्ट होते हुए भी प्रमुख रूप से वह किसी एक वर्ण में माना जाता है उसी प्रकार यहां भी समझना चाहिए।
शरीर की आयु की दृष्टि से भी प्रत्येक व्यक्ति क्रमशः भगवान् की इन त्रिमूर्ति में से प्रत्येक के अधीन उसे आना पड़ता है। इस समय यह संपूर्ण भूमण्डल विनाश व संहार की देहली पर खड़ा है। चहुं ओर विक्षोभ, विप्लव व संहार के भीषणतम दृश्य दृष्टिगोचर हो रहे हैं। इस कारण हम यह कह सकते हैं कि आज का यह भूमण्डल भगवान रुद्र के शासन में आया हुआ है। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को भगवान् रुद्र से प्रार्थना, उपासना, उसके प्रति नमन विशेष रूप से करना चाहिए। यजुर्वेद के रुद्राध्याय तथा वेदों के रुद्र-सूक्तों व मंत्रों का पठन-पाठन, श्रवण मनन आदि इस घोर कलिकाल में विशेष रूप से होना चाहिए। वेदों में जितना अधिक ‘नमः नमन रुद्र के लिए हुआ है उतना किसी अन्य देवता के लिए नहीं है।