सुप्रभातम् : आइए, सैर को बनाएं समाधि का साधन

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हिमशिखर धर्म डेस्क
काका हरिओम्

स्वामी रामतीर्थ ने कठोर परिश्रम के बिना आत्मज्ञान को असंभव माना है। उनका मानना है कि पसीने के रूप में शरीर का विष ही बाहर नहीं निकलता है, मन में बैठा मल भी गल कर बह जाता है। यदि कोई सुविधाओं में जीकर, भोगों में बह कर आध्यात्मिक उन्नति की बात कर रहा है, या मान रहा है कि जीवन में परम को प्राप्त कर लेगा, तो मानो वह दिन में स्वप्न देख रहा है।

तीर्थस्थलों की पैदल यात्रा का रहस्य इसी कथन में छिपा हुआ है। कहते हैं कि श्रम के बाद जिसकी जीवन में उपलब्धि होती है, उसका अपना ही आनंद है। यह जो देव-दर्शन करने की शाॅर्ट कट परंपरा शुरू हुई है, असल में इससे मनोवैज्ञानिक रूप में संतुष्टि तो होती है, लेकिन वह नहीं घटित हो पाता, जो होना चाहिए।

आइए, इसके पीछे जो विज्ञान है, उस पर थोड़ा विचार करते हैं। जब आप कठोर परिश्रम करते हैं, तो आपकी इन्द्रियां, जो स्वभाव से बहिर्मुखी हैं, थक जाने के कारण अन्तर्मुखी होने को विवश हो जाती हैं। कई बार तो यात्रा इतनी कठिन होती है कि आपका पूरा शरीर निढाल हो जाता है। ऐसे में आपको साफ-साफ महसूस होता है कि आप अपने शरीर को ढो रहे हैं, बिल्कुल वैसे ही जैसे आप अपनी पीठ पर लदे सामान को ढोते हैं।

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यह अनुभव आपको भावातीत स्थिति में ले जाता है। तब देवदर्शन की तीव्र इच्छा ही आपके अर्धचेतन मन में टिमटिमाती है। यह क्षण होता है, आपकी कामना के पूर्ण होने का। यह समय होता है जब सीप का मुख खुला होता है और विशेष नक्षत्र में स्वाति वर्षा की बूंद उसमें जा गिरती है। यह बूंद के मोती बनने की प्रक्रिया है।

इसका प्रयोग आप सुबह-शाम सैर करते समय भी कर सकते हैं। शरीर को थकाइए और बैठ जाइए एकान्त में, ध्यान में। आपको स्वयं अनुभव होगा कि अब मन को एकाग्र करना आपके लिए कितना आसान हो गया है। शवासन में लेटकर भी इस अनुभव से आप गुजर सकते हैं। आती-जाती श्वासों को देखिए, दोनों भृकुटियों के बीच आज्ञाचक्र पर देखने का प्रयास कीजिए। ऐसे में सैर आपकी समाधि यात्रा का परम साधन बन जाएगी।

परिश्रम से बचिए नहीं। इसका मौका हाथ से न जाने दीजिए। यह आपके शरीर को ही नहीं, आपके मन को भी स्वस्थ और प्रसन्न रखेगा।

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आज इसकी अत्यधिक आवश्यकता है।

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