साहित्य कभी पुराना नहीं होता। साहित्यकार कभी मरता नहीं है। चडडी लोक गंगा का “पहाड़ी जन्मशती विशेषांक” पर आधारित समीक्षा। दस वर्ष पूर्व प्रकाशित।
कवि: सोमवारी लाल सकलानी, निशांत
कोरी ठंड अधिक बढ़ चुकी है। रातें भी काफी लंबी हैं। समय बहुत ज्यादा है। इसलिए फुर्सत के क्षणों में अपनी छटी सी जगदीश लाइब्रेरी से “लोक गंगा” के पुराने अंक पढ़ रहा हूं।
कल से साहित्य जगत के नक्षत्र प्रेमचंद के बाद महान हिंदी कथाकार रमाप्रसाद घिल्डियाल ‘पहाड़ी’ जी के जनशताब्दी विशेषांक का अध्ययन कर रहा हूं।
इस अंक को यद्यपि अनेकों बार पढा है, फिर भी पढ़ाई के प्रति रुचि उत्पन्न करने के लिए सोशल मीडिया के द्वारा अभिरुचि भी पैदा कर रहा हूं।
रमाप्रसाद घिल्डियाल ‘पहाड़ी’ साहित्य जगत में एक ऐसा नाम जिनको भला कोई साहित्य प्रेमी क्यों ना पहचाने और फिर “लोक गंगा” जैसी प्रतिष्ठित पत्रिका का उनको समर्पित विशेषांक क्यों न रुचिकर हो, यह बात मन में आयी। इस लिए पुन: सम्यक रूप से अध्ययन कर रहा हूं।
प्रस्तुत अंक में अनेक मनीषी विद्वानों के आलेख, संस्मरण, कथा संसार, कविताएं, पत्रावली और पाठकों का नजरिया प्रस्तुत है।
मूर्धन्य विद्वान और संपादक योगेश चंद्र बहुगुणा जी का संपादकीय सब कुछ बंया कर देता है। डॉक्टर लक्ष्मण सिंह बटोरोही, डॉक्टर शेखर पाठक, डॉक्टर गोविंद चातक, डॉ महावीर प्रसाद लखेड़ा, शक्ति प्रसाद सकलानी, महावीर रवाल्टा, डॉक्टर अख्तर अली साहब आदि अनेक विद्वानों के आलेखों के द्वारा भी साहित्य वर्धन कर रहा हूं।
प्रस्तुत अंक में मुद्रित “पहाड़ी” जी की कहानी ‘छोटा देवर’ पढ़ा है। बहुत ही रोचक कहानी है। पहाड़ की हकीकत की कहानी है। मानवीय संवेदना और मनोविज्ञान के कहानी है। दैहिक और आत्मिक प्रेम की कहानी है। वातावरण और परिस्थितियों का असर तथा भावनाओं का द्वंद कहानी में भरा पड़ा है।
कहानी की कथावस्तु रोचक होने के साथ-साथ दिमाग पर असर डालती है। ह्रदय की भावनाओं को उद्वेलित करती है।
” छोटा देवर” कहानी में हरि सिंह और उसकी भाभी मुख्य पात्र हैं। कहानीकार भी स्वयं एक पात्र के रूप में भूमिका अदा कर रहा है। पहाड़ी सच्चाई पर आधारित या कहानी पाठकों की भावनाओं को गहराई तक प्रभावित करती है।
हरि सिंह के जीवन के उतार-चढ़ाव, भाभी का ‘घुंड्या देवर’ परिस्थितियों की मार। भाई की मृत्यु के बाद देवर से विवाह। कर्ज, गृहस्थी, भावनात्मक लगाव न होने के कारण हरि सिंह का शराबी बनना, अपने मन की बात कथाकार को का बतलाना, कथाकार द्वारा उसे समझाना, भावी,(अब पत्नी) के बलिदान के बारे में उसके मानसिक पट खोलना, आदि कहानी को रोचक बनाता है। साथ ही एक उच्चस्तरीय सीख भी देता है।
“छोटा देवर” कहानी पहाड़ और परिवार की कहानी है। कहानी की संवेदना से पाठकों को अनायास ही मानवीय जीवन की सच्चाई प्राप्त होती है। बाहरी वातावरण यहां की कठोर जिंदगी, हरि सिंह की कर्तव्य परायणता, निष्कपट और निस्वार्थ प्यार की भावना, पहाड़ी बोली और गढ़वाली के शब्दों का समावेश, कहानी के अंदर निहित है। उत्तराखंड की कर्तव्यनिष्ठ नारी की छवि विद्यमान है।
उन्होंने अपनी कहानियों के द्वारा यथार्थ को धरातल पर उतारा है। उनके कथा साहित्य पर मूर्धन्य विद्वानों ने समीक्षाएं की हैं। नारी शक्ति, प्रेम, भावनाओं तथा मानवीय मनोविज्ञान पर आधारित उनकी कहानियां उत्कृष्ट हैं।
रामप्रसाद घिल्डियाल “पहाड़ी” का जन्म 1911 में पौड़ी गढ़वाल के डांग गांव में हुआ और 1997 में अपने देहावसान तक उन्होंने साहित्य की सेवा की।
श्रीनगर के प्रति उनका लगाव बचपन से रहा। उनकी शिक्षा भी श्रीनगर में हुई। इसलिए पहाड़ी जी ने इस सांस्कृतिक नगरी का भी अपनी कहानियों में चित्रण किया है। श्रीनगर का प्रभाव उनके ऊपर इतना अधिक पड़ा, जैसा कि डॉक्टर पीतांबर दत्त बड़थ्वाल ने लिखा है, “कश्मीर में लल्लेश्वरी, हिंदी प्रदेशों में तुलसी कबीर और सूर, मिथिला में विद्यापति, राजस्थान में मीरा, गुजरात में नारसी मेहता, महाराष्ट्र में तुकाराम और एकनाथ, तमिल में अंडाल, तेलुगु में उपन्ना, पंजाब में नानक, बंगाल में चैतन्य महाप्रभु और भाषाई साहित्य के अलावा बोलियों में भी हजारों संतों ने अपनी वाणी से देश को गुंजारित कर दिया था, उसी परंपरा के पोषक रमाप्रसाद घिल्डियाल ‘पहाड़ी’ रहे हैं, जिन्होंने अपनी कहानियों के द्वारा समय-समय पर प्रस्तुत कर अनुग्रहित किया।”
पहाड़ी जी के जीवन से संबंधित अनेकों आत्मकथात्मक संस्मरण अद्धृरित हैं। वहीं प्राइमरी शिक्षा जब उन्होंने लैंसडाउन छावनी से प्राप्त की तो तत्कालीन समाज,सैनिक छावनी, फौजियों की दास्तान की कहानियां, फौजी परिवारों की हकीकत, पहाड़ की मनीआर्डर की व्यवस्था पर उन्होंने अवश्य अपनी कलम चलाई।
साहित्य कभी पुराना नहीं होता बल्कि समय अनुसार उसकी उपयोगिता और बढ़ जाती है। लोक चेतना की मासिकी लोक गंगा का “पहाड़ी जन्मशती” पर प्रकाशित यह विशेषांक पाठकों के लिए प्रख्यात कथाकार के बारे में जानने के लिए पर्याप्त है।
मै लोकगंगा के संपादक योगेश चंद्र बहुगुणा जी तथा परामर्शदाता मोहनलाल बाबुलकर को प्रणाम करते हुए प्रख्यात पर्यावरणविद समाजसेवी और सर्वोदय समाज के अभिन्न अंग श्री धूम सिंह नेगी जी को भी प्रणाम करता हूं, जिन्होंने 10 वर्ष पूर्व मेरे घर पर आकर मुझे यह विशेषांक भेंट किया था।आज भी वही नवीनता है जो प्रकाशित वर्ष में रही थी।