मंगलवार विशेष : श्री माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर की श्रीहनुमन्निष्ठा

हिमशिखर धर्म डेस्क

Uttarakhand

दत्तोपंत बापूराव

मलयालम् भाषा की एक रामायण का प्रारंभ विशेष ढंग का है। श्रीराम-कथा सुनाने की भावना से भगवान शंकर पार्वतीजी से कह रहे हैं कि सीताजी ने श्रीहनुमान को अपना इच्छित वर मांग लेने के लिए कहा। हनुमानजी के मन में एक ही वर की चाहना थी, अतः उन्होंने सदा-सर्वदा चिरन्तन काल तक श्रीराम नाम का जप कर सकने का वर मांगा। यह सुनकर भगवती पार्वती को बड़ा आश्चर्य हुआ और उन्होंने यह संपूर्ण प्रसंग सुनने की अभिलाषा प्रकट की। इस पर ही रामायण का कथन प्रारंभ होता है।

जब मलयालम् के एक विद्वान् ने यह बात माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर (श्रीगुरुजी) को बतायी, तब उन्होंने इस पर प्रसन्नता प्रकट की और कहा कि इस तरह के प्रारंभ में एक विशेष प्रकार का औचित्य है। श्रीहनुमान जी का कार्य सम्पूर्ण श्रीराम-कथा में अद्वितीय है और उस अद्वितीत्व की ओर साधारण जन का ध्यान आकृष्ट करने की दृष्टि से इस प्रकार का प्रारम्भ उपयुक्त ही है। गुरुजी की आन्तरिक धारणा थी कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के कार्यकर्ताओं के सम्मुख एक आदर्श के नाते जिनके नाम प्रस्तुत किये जा सकते हैं, उनमें हनुमानजी का नाम अग्रगण्य है। गुरुजी का विचार था कि-
मनोजवं मारुततुल्यवेगं जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठम्।
वातात्मजं वानरयूथमुख्यं श्रीरामदूतं शरणं प्रपद्ये।।

यह श्लोक हनुमानजी की उन विशेषताओं को प्रकट करता है, जो संघ के स्वयंसेवक कार्यकताओं के लिए सदैव मननीय एवं चिन्तनीय है। इस श्लोक में श्रीहनुमानजी की विलक्षण विशेषताओं की ओर संकेत किया गया है। श्रीहनुमानजी पराक्रमी थे, ‘बुद्धिमतां वरिष्ठ’ थे, नेतृत्व के गुणों से संपन्न थे और यह सब होते हुए भी वे ‘श्रीरामदूत’ थे, निरहंकारी थे, आत्म-समर्पण की मूर्ति थे। श्रीगुरुजी बहुधा कहा करते थे कि यह निरहंकार पूर्ण आत्म समर्पण ही हनुमानजी का श्रेष्ठतम गुण था।

Uttarakhand


एक अन्य श्लोक की ओर भी वे बार-बार संकेत करते थे। किसी एक अवसर पर किसी विशेष संदर्भ में हनुमानजी ने प्रभु श्रीराम से कहा-
देहदृष्टया तु दासोहं जीवदृष्टया त्वदंशकः।
आत्मदृष्टया त्वमेवाहमिति मे निश्चिता मतिः।।

इस श्लोक में द्वैतावस्था से अद्वैत की ओर जाने वाले मार्ग का तथा एक ही समय में विभिन्न स्तरों पर स्वयं को स्थित करने की क्षमता का-दोनों का बोध स्पष्ट रूप से होता है। गुरुजी कहते थे कि यह श्लोक सभी सभी भक्ति-पथ-पथिकों के लिए मार्गदर्शक है।

संघ के स्वयंसेवकों को संघ-कार्य की कल्पना कराते हुए गुरुजी कहा करते थे कि आज हम राष्ट्र के पुनर्निर्माण के कार्य में जुटे हुए हैं। इस समय यह स्मरणीय है कि तीन सौ वर्ष पूर्व जब स्वराज्य-संस्थापना का कार्य छत्रपति शिवाजी द्वारा चलाया जा रहा था, तब उनके कार्य की नींव गहरी तथा विस्तृत बनाने की दृष्टि से समर्थ श्रीरामदास स्वामी ने प्रत्येक गांव में श्रीहनुमान की प्रतिष्ठा करने का उपक्रम किया।

Uttarakhand

अनगढ़े पत्थर को भी सिन्दूर लगाकर हनुमान जी के नाते उसकी प्राण-प्रतिष्ठा कर देना उनकी सामान्य प्रक्रिया थी। इस तरह श्रीसमर्थ द्वारा विस्तृत पैमाने पर प्राणप्रतिष्ठा का कार्य किया गया। प्राण प्रतिष्ठा के साथ-साथ हर स्थान पर श्रीहनुमानजी के मन्दिर के साथ ही व्यायामशाला जैसे कुछ शारीरिक कार्यक्रम चलाये गये, जिससे गांव के युवकों का वहां एकीकरण होता रहे। यही श्रीसमर्थ की योजना की स्थूल रूपरेखा थी। गुरुजी का विश्वास था कि राष्ट्र-निर्माण के कार्य की प्रक्रिया के नाते समर्थ श्रीरामदास स्वामी की योजना से मार्ग-दर्शन प्राप्त करना आज भी लाभदायक सिद्ध होगा।

Uttarakhand

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *