जीवन का मंत्र: सबसे बड़े शत्रु हमारे कुसंस्कार हैं

पंडित हर्षमणि बहुगुणा

Uttarakhand

अपने ऊपर विजय प्राप्त करने वाले को ही सबसे बड़ा विजेता कहा जा सकता है। दूसरों पर आक्रमण करने के लिए सेना की आवश्यकता होती है, परन्तु अपनी कमजोरियों पर आक्रमण करने के लिए कठोर साधना की आवश्यकता होती है। दूसरे तो आक्रमण के समय बेखबर भी हो सकते हैं, परन्तु आत्म विजेता सदैव जागरूक रहने वाला ही हो सकता है। इसके लिए ‘आत्मानुशासन’ की आवश्यकता होती है।

स्वामी रामतीर्थ की अमेरिका यात्रा के समय जब वहां के राष्ट्रपति रूजवेल्ट उनसे मुलाकात करने आए, उस समय स्वामी राम तीर्थ अपने आप को बादशाह रामतीर्थ कह कर पुकारा करते थे। इस पर अमेरिकी राष्ट्रपति रूजवेल्ट ने उनसे पूछा कि “आप किस देश के बादशाह हैं “। स्वामी रामतीर्थ का उत्तर था – मैं स्वयं का सम्राट हूं, क्योंकि मैंने स्वयं को जीत रखा है।” रूजवेल्ट को तब आभास हुआ कि सच्चा योद्धा केवल साधक ही हो सकता है।

यदि सही देखा जाय तो हमारे सबसे बड़े शत्रु हमारे कुसंस्कार ही हैं। यही कुसंस्कार हमारी आन्तरिक उत्कृष्टता को दबा देते हैं और जैसे ही हम अच्छाई की ओर कदम बढ़ाते हैं तभी ये कुसंस्कार बाधा बन कर हमारे मार्ग में खड़े हो जाते हैं। यदि इन पर एक बार विजय पा भी ली जाय तो यह अर्थ नहीं है कि हम उन पर हमेशा के लिए विजयी हो गये हैं। अतः इनसे निपटना बहुत बड़ी बहादुरी का काम है।

अनाज में यदि घुन लग जाय तो वह खाने योग्य नहीं रह जाता। वैसे ही मानव के साथ भी कुछ इसी तरह के विषाणु, दीमक का काम करते हैं। दुष्प्रवृत्तियां, दुर्गुण, दुर्भावनाएं, छल-कपट, द्वेष- घृणा मानव को पतन के गर्त की ओर ले जाते हैं, और उसकी उन्नति का मार्ग अवरूद्ध हो जाता है। अतः जिसे आन्तरिक दृष्टि से उन्नति करनी होती है उसके लिए साधना रूपी कठोर श्रम का पथ आवश्यक है। ऐसा कठोर परिश्रमी व्यक्ति ही आत्मविजेता बन सकता है और आत्म विजेता ही विश्वविजेता होता है। क्या हम इस पथ पर आगे बढ़ सकते हैं? क्या हम अपनी कमियां देखने का श्रम कर सकते हैं अवश्य! केवल और केवल अपनी कमियों को देखें व उन्हें दूर करने का प्रयास करें ? तो इस संसार को स्वर्ग से भी अधिक अच्छा बना सकते हैं!

आध्यात्मिक उन्नति के लिए सादा जीवन, उच्च विचार ही श्रेयस्कर होता है। दूसरा मेरे से बेहतर है यह भावना श्रेयस्कर है, मैं सबसे श्रेष्ठ हूं यह भावना पतन का कारक है। जीवन में सच्ची शांति, आन्तरिक पूर्णता के द्वारा ही मिल पाती है, यदि जीवन का लक्ष्य और उद्देश्य मात्र पेट भरना ही होता तो पशु इस काम को हमसे बेहत्तर कर सकते थे, कर सकते हैं।

यदि जीवन का लक्ष्य अपने परिवार को बड़ा कर लेना मात्र होता तो विश्व भर के लोगों ने मानव जीवन के लक्ष्य को प्राप्त कर लिया होता। पर मन में उच्च विचार रखते हुए सादा जीवन ही मानव की उन्नति का आधार है।

अतः ऐसे भाव मन में भरे रहें। क्या करना चाहिए यह विचारणीय है, यदि हम सब एक संकल्प लें कि जैसे उत्तरी गोलार्ध में आज का दिन सबसे छोटा है और ऐसे सुअवसर पर यदि परमपिता परमेश्वर ने इस छोटे दिन हमें (मुझे) इस भारत भूमि में भेजा तो लघिमा जैसी सिद्धि के अनुरूप अपनी-अपनी जगह भारत मां की सेवा में तन- मन अर्पण कर कुछ न कुछ सकारात्मक कर्म किया जा सके। यह विचार किया जाय कि-अधिक साधन आ जाने से मन की दरिद्रता कम नहीं होगी, पैसे बढ़ जाने से दिल बड़ा नहीं होगा, पद बड़ा हो जाने से आध्यात्मिकता बढ़ नहीं जाएगी।

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