संसार में मनुष्य माया और मोह के बंधन में बंधा हुआ है। माया आदमी को नचाती है। माया नर्तकी है। यह माया रूपी नर्तकी मनुष्य को जैसा चाहे वैसा नचाती है। जिस कारण हम ईश्वर की सच्ची भक्ति नहीं कर पाते हैं। भक्ति में मन लगे इसके लिए नियमित कीर्तन करना जरूरी है।
स्वामी ईश्वारानन्द सरस्वति
एक योगी पद्मासन में बैठा हुआ था। एक सुंदरी आकर हाव भाव दिखाते हुए नाचने लगी। वह कभी बाएं तो कभी दाएं दिशा को जाती। योगी भी आंख फाड़-फाड़ के उसे देखने लगा। इस पर नर्तकी भी खुशी से अपने जलवे दिखाने लगी। पहले उसने अपनी पल्लू गिराई। फिर अपनी जैकेट खोली। योगी भी उसकी ओर एकटक देख रहा था।
अप्सरा अपने कपड़े खोलकर अंग प्रत्यंग दिखाने लगी। योगी भी उतना ही उत्साह से बोला, ”और जो कुछ दिखाना चाहो सब दिखाओ। पहले चमड़ी खोल कर दिखाओ। बाद में मांस हड्डी खोल कर भी दिखाओ। तुम दिखाना चाहती हो, मै भी देख रहा हूँ”। यह सुनकर नर्तकी जल्दी जल्दी अपने कपड़े पहनकर भाग गई।
ठीक इसी प्रकार संसार में माया मनुष्य को नचाती रहती है। फिर इसका उपाय क्या? ”नर्तकी को उल्टा करो”।
नर्तकी को उल्टा करने से कीर्तन होता है। भगवान का भजन करो। ”मछुवारे के पाँव के इर्द गिर्द रहने वाले मछली जाल में कभी फंसती नहीं है।”
भगवान के चरण प्रांगण में स्थित भक्त को माया अपने जाल में नहीं फंसा पाता। ऐसे भक्त को माया स्पर्श और परेशान नहीं करती, जिससे वह इस भवसागर से तर जाता है।