परमहंस स्वामी रामतीर्थ कई मायने में विलक्षण रहे हैं। उनके जीवन को पढ़ने से साधना के अनेक आयाम सहज रूप से खुलते हैं। स्वामी जी सहजता को साधना का आधार मानते हैं और इसे उनके अल्प जीवन में अनुभव भी किया जा सकता है।
हिमशिखर खबर ब्यूरो
कहते हैं शिशु तीर्थराम मंदिर जाने के लिए हठ किया करते थे। मंदिर के घंटे की आवाज सुनकर चुप हो जाते थे। थोड़ा बड़े हुए तो पुराणों की कथाएं उन्हें कंठस्थ हो गईं और वे उसमें छिपे रहस्यों को भी जानने की कोशिश करने लगे। शिक्षा के लिए उन्होंने कठोर श्रम किया। प्रतिकूल परिस्थितियों को उनके दृढ़-संकल्प के सामने हार मानकर अनुकूल होना पड़ा।
कोर्स की किताबों के अलावा उन्होंने कब भारत के महत्वपूर्ण ग्रंथों को पढ़ा और उनके बीच छिपे समन्वय के सूत्रों को ढूंढ निकाला, कब विश्वभर का भ्रमण किया, ये कुछ ऐसी बाते हैं, जो स्वामी राम को अन्य महापुरुषों से अलग खड़ा कर देती हैं-छोटी सी वय और आध्यामिकता के परम उत्कर्ष का संस्पर्श। धन्ना जी से साधना की शुरूआती बातों को जानने-समझने के बाद कैसे उन्होंने द्वैत का अतिक्रमण कर अद्वैत की स्थिति को प्राप्त किया, यह जिज्ञासु साधकों के लिए अनुकरणीय है।
आजीवन उन्होंने धन्ना जी का पूर्ण सम्मान किया, लेकिन सत्य को कहने से चूके भी नहीं। वेदांती होने का अर्थ है सत्य को जीवन में सर्वोच्च स्थान देना। अपने इष्ट श्रीकृष्ण के प्रेम में तकिया भिगोना वाला भावुक भक्त भावातीत स्थिति में रमण करने लगेगा, ऐसा सामान्य व्यक्ति सोच भी नहीं सकता-लेकिन ऐसा हुआ। इस संदर्भ में प्रस्थानत्रयी के साक्षात प्रतीक हैं स्वामी राम।
सिद्धांत के रूप में स्वामी रामतीर्थ द्वारा प्रतिपादित अद्वैत वेदांत के समर्थक थे, इसीलिए उन्होंने उपासना की महत्ता का भी बखान किया। उपनिषदों की मान्यता है कि उपासना से बुद्धि स्वस्थ होती है और ऐसी बुद्धि ही सूक्ष्म ब्रह्म तत्व को ग्रहण कर पाती है। स्वामी राम पारंपरिक कर्मकांड के पक्षपाती नहीं थे, लेकिन उन्होंने बाह्य साधनों का कहीं विरोध भी नहीं किया-अशक्त को सहारा तो चाहिए लेकिन सहारा आजीवन चिपक न जाए, इस बात का ध्यान रखने की आवश्यकता है। साधनों की सार्थकता साध्य के संदर्भ में ही तो हुआ करती है। परमात्मा के अस्तित्व की स्वीकृति और उसके अनुभव को ही उन्होंने भक्ति और उपासना तथा जीवन का अंतिम उद्देश्य माना।
स्वामी जी नाद ब्रह्म की साधना को आत्मानुभूति का प्रमुख साधन मानते थे। श्रीकृष्ण ने गीता में ओउम् को एकाक्षर ब्रह्म कहा है। स्वामी जी ने अपने प्रवचनों में कई स्थानों पर ओउम वाचिक जप और चिंतन पर बल दिया है। वे पूरे विश्वास के साथ कहते हैं कि इस महामंत्र के नाद से समस्त ताप समाप्त हो जाते हैं, बिल्कुल वैसे ही जैसे अग्नि के स्पर्श से रुई का ढेर जलकर राख हो जाता है।
प्रत्येक पुराण में ओउम् को तत्संबंधित देवी-देवता का प्रत्यक्ष और सूक्ष्म रूप बताया गया है। ऋषि तो यहां तक कहते हैं कि प्रणव अक्षर में तीनों वेद समाहित हैं।