प्राकृतिक आपदाओं का पहले इस तरह किया जाता था मुकाबला, अब दिया गया भुला

जगत सिंह चौधरी ‘जंगली’

Uttarakhand

आज प्रकृति पर बहुत बड़ी बहस खड़ी हो गयी है या यूं कहें कि प्रकृति ही आज प्रश्नों के घेरों में हैं। क्योंकि आपदा को हम प्राकृतिक आपदा मानकर अपने-अपने तर्कों को पुष्ट करने पर जी जान से जुट गए हैं। प्रकृति, प्राकृतिक नियमों के अनुसार परिवर्तनशील रही है। इसलिए उत्तराखण्ड हिमालय पहले जहां समुद्र था आज वहां पर्वत श्रृंखलाएं एवं विशाल हिमालय प्रहरी बनकर खड़ा है।

उत्तराखण्ड हिमालय अध्यात्म तप एवं तपस्या के लिए बना है। इसलिए चार धामों सहित असंख्य अन्य धाम जिनमें लोगों की भी आस्था हैं, उत्तराखण्ड हिमालय में विद्यमान हैं। युगों से चली आ रही परम्पराओं के अनुसार आज भी उत्तराखण्ड के गांवों में प्राकृतिक आपदाओं से बचने के अनेक आध्यात्मिक एवं धार्मिक उपाय किए जाते रहे हैं। जिस कारण लोग प्राकृतिक आपदाओं से भी सुरक्षित रहे हैं।

इनमें प्रमुख हैं-भूमि को टूटने एवं बहने से बचाने के लिए भूम्याल देवता की नियमानुसार पूजा, डाल अथवा ओलावृष्टि एवं अनावृष्टि को रोकने के लिए डाल्या जी द्वारा पूजा करना। गांवों को आसुरी शक्तियों से बचाने के लिए कुल देवी की पूजा एवं आसुरी शक्तियों को कलेवा के रूप में प्रत्येक घर से पूजा सामग्री को एकत्रित करके दूर जंगल में रखना। पानी सतत् बना रहे इसलिए धारा पनेरा अर्थात् पानी के स्रोतों की पूजा करना, पशुओं को बीमारी से बचाने के लिए पांडव नृत्यों का आयोजन, जंगलों में अनावश्यक पड़ी चीजों को इकट्ठा करके एक जगह पर रख करके खरपतिया देवता की पूजा करना। ताकि जंगल सुरक्षित रह सके। तीर्थ स्थानों एवं देवी देवताओं के मंदिरों में पवित्र भावों को लेकर प्रवेश करना। देवी-देवताओं द्वारा लोक कल्याण के लिए देवरा यात्रा करना आदि ऐसी अनेक प्रथाएं सैकड़ों सालों से चली आ रही हैं। जिससे आपदाओं से लोग निर्भीक बने रहे एवं आपदाओं का मुकाबला भी करते रहे हैं।

पहाड़ों में आज हम बादल फटना बोलते हैं, उसे लोग पूर्व से ही बाणउरयाना अर्थात् प्रकृति द्वारा ऐसा बवंडर तैयार होना, जिससे चारों दिशाएं कंपाएमान हो जाती हैं। मूसलाधार बरसात होती है, आसमान में दिल दहल देने वाली आवाजें पैदा होती हैं। ऐसी ध्वनियां चारों ओर ऐसी फैलती हैं कि मानव दहल जाता है। ऐसी प्रथाएं पूर्व से चली आ रही हैं कि ध्वनि का जो बवंडर पैदा हुआ है उसका जवाब डर कर चुप बैठने के बजाए बाहर निकलकर ध्वनि पैदा करके दिया जाए। इसलिए लोग जिसके हाथ में जो चीज आए थाली-गिलास कटोरा-घंटियां-शंख-भंकोरियां एवं ढोल बजाकर देते रहे हैं। जिससे बवंडर शांत होते देखा गया है। मैंने स्वयं इन चीजों को आत्मसात करते हुए आपदाओं से छुटकारा पाया है। परंतु आज मैं देख रहा है कि जन समुदाय ऐसे प्रयोगों को भूलता जा रहा है। यही कारण है कि उत्तराखण्ड में आपदाओं का ग्राफ दिन-प्रतिदिन बढ़ता हो जा रहा है।

सैकड़ो सालों से पहाड़ के लोगों का प्रकृति एवं अध्यात्म से सामंजस्य ऐसे ही नहीं रहा है, बल्कि उन्हें समय-समय पर इसके प्रमाण भी प्राप्त होते रहे हैं। अध्यात्म की दो सी घटनायें जिन्हें आज भी लोग जानते हैं। उनमें हरियाली क्षेत्र में विराजमान हरियाली देवी जिसके मंदिर में प्रवेश से पहले सात दिन पूर्व लहसुन प्याज, मांस-मदिरा का सेवन वर्जित है। एक बार देवरा यात्रा के दौरान किसी व्यक्ति द्वारा फल विहान वृक्ष से हरियाली देवी द्वारा फल प्राप्त करने की कामना की गई एवं हरियाली देवी द्वारा फल विहीन वृक्ष पर फल पैदा कर सबको नतमस्तक कर दिया गया। उसी प्रकार चमोली जिले में देवल ग्राम में विराजमान देवराडी देवी जो कि रिंगाल से उत्पन्न हुई, लंबे समय से क्षेत्र में वर्षा नहीं होने से लोगों ने पुजारी से प्रार्थना की। पुजारी द्वारा अपनी आस्था एवं विश्वास के बल पर देवी से एक तुमड़ी पानी को दिन-भर रट लगाए रखी। ला देवी एक तुमड़ी पानी, दे- देवी एक तुंगढ़ी पानी दिनभर यही रट रखाए रखी। और आश्चर्य तब लोगों को हुआ, जब सांय को खूब बारिश हुई। इससे लोगों की आध्यात्म के प्रति और रूचि बढ़ गई।

पहाड़ के लोगों का जीवन प्रकृति से जुड़ा रहा। इसलिए उन्होंने कोई गलत काम इसलिए नहीं किए कि उनकी जड़ अर्थात् जिसको हम साख कहते हैं गलत करने से कहीं उनकी जड़ समाप्त न हो जाए। इसलिए लोग गलत काम नहीं करते थे।

परन्तु आज भौतिकवादी चमक-दमक सुख, भोग, अर्थ, काम से सराबोर मैदानी संस्कृति के परिवेश ने पहाड़ को अपनी चपेट में ले लिया है। सबसे दुःखद पहलु तो यह है कि हमारे अध्यात्म के केंद्र जो धाम हैं वे भी इससे नहीं बच पा रहे हैं। भोगवादी संस्कृति ने हमारे तीर्थों को धूमिल करना प्रारंभ कर दिया है। जो धीरे-धीरे प्राकृतिक प्रकोपों के रूपों में सामने भी आने लग गए हैं।

उत्तराखण्ड हिमालय के लोगों का प्राकृतिक संसाधनों से पूर्व से ही आत्मीय संबंध रहा है। जल, जमीन, जंगल से उनका जीवन आत्मीयता से जुड़ा रहा है। इसलिए जंगलों में वन देवी देवताओं की पूजा भूमि एवं जल के प्रति श्रद्धा आज भी विद्यमान है।

व्यवसायीकरण के कारण जंगलों की स्थिति चीड़ प्रजाति के मोनोकल्चर ने लगने वाली भीषण आग को दूषित कर दिया है। नदियों के किनारे जनसंख्या के घनत्व बढ़ने से नदियों में प्रदूषण रहा है। पलायन से गांवों की जमीन बंजर हो रही है, जिससे भूस्खलन बढ़ रहा है। विकास के नाम पर पैसा कमाने की भूख का बढ़ना सर्वत्र देखा जा सकता है। हमारे चारों धामों के साथ-साथ अन्य तीर्थ भी अब अध्यात्म, तप तपस्या एवं मोक्ष के विपरीत भोगवादी प्रवृति की ओर असर होते जा रहे हैं। मंदिरों से मूर्तियों की चोरी होने की घटनाएँ बढ़ती जा रही हैं। जंगलों से जैव विविधता का क्षरण, भूमि से मिट्टी का धरण, जल से पवित्रता का क्षरण एवं धामों एवं तीर्थो से अध्यात्म का क्षरण भी प्राकृतिक प्रकोपों की वृद्धि का कारण बनता जा रहा है।

वराहमिहीर संहिता के 46 वें अध्याय में स्पष्ट लिखा गया है

महर्षि गर्ग जी ने जिन उत्पातों का वर्णन महर्षि अत्रि जी से किया है इस समय उन्हीं उत्पातों का वर्णन यहां पर किया जा रहा है।

  • स्वभाव से विपरीत होना ही उत्पात है। यही इसका संक्षेप अर्थ है।
  • मनुष्यों के अहिताचरण करने से जो पाप इकट्ठा होता है, उससे ही उपद्रव होता है।
  • दिव्य, अंतरिक्ष एवं समस्त भौम उत्पात उनकी भली-भांति से सूचना करते हैं।
  • मनुष्यों के अव्यवहार करने से देवता लोग अप्रसन्न होकर इन उत्पातों को उत्पन्न किया करते हैं।

अर्थात् अभी भी समय है कि हम पूर्वजों द्वारा स्थापित नियमों का पालन करते हुए उत्तराखण्ड हिमालय की इन सुंदर घाटियों, पर्वतों को प्राकृतिक आपदाओं से बचा सकते हैं। हमारे जल, जमीन एवं जंगल सुरक्षित रहेंगे तो हमारा जीवन भी सुरक्षित रहेगा। यह तभी संभव होगा जब हम प्रकृति से सामंजस्य बनाकर आगे बढ़ेंगे।

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