काका हरिओम्
हमारी परंपराओं में कुछ बातें समझ से परे हैं। उन्हें निरर्थक तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन सामान्य बुद्धि की पकड़ में नहीं आती हैं। जुआ खेलना-धर्म के विरूद्ध है, फिर भी दीपावली को जुआ खेलने को शगुन माना जाता है। जो हमेशा इससे बचता है, दूसरों को बचने की हिदायत देता है, वह भी बैठता है अपने दोस्तों या परिवार के सदस्यों के साथ ही सही। मान्यता है कि इससे धन की देवी लक्ष्मी प्रसन्न होती हैं। इससे यह भी पता चलता है कि भाग्य की हवा अनुकूल चल रही है या प्रतिकूल।
स्वामी राम ने भी एक पत्र में दीवाली के दिन ऐसे ही जुए खेलने का जिक्र किया है। वह लिखते हैं-‘‘आज दीवाली पर राम ने भी जुआ खेला। उसने इसमें एक-एक करके अपनी ‘ममता’ को दांव लगाया। और आश्चर्य कि वह एक भी दांव जीता नहीं, हारता चला गया। लेकिन इस लगातार हारने का उसे कोई दुख नहीं था, बल्कि उसने महसूस किया, प्रत्येक हार के बाद उसके भीतर आनन्द का सागर आकाश को छू रहा था, उसमें प्रसन्नता और शांति का संचार हो रहा था।
‘‘अब उसके पास कुछ नहीं बचा था हारने को। उसकी दशा पाण्डवों की सी थी, जिनके पास हारने को बस एक ही चीज रह गई थी-स्वामित्व। अब उसे दांव पर लगाने की बारी थी। मैंने पाण्डवों की तरह उसे भी दांव पर लगाया। वह तो भिखारी बन गए-वनवासी होकर जंगल-जंगल भटकने लगे, जबकि मेरे साथ बिल्कुल इसके विपरीत हुआ। मैं अपना सर्वस्व, यहां तक कि खुद को भी हार जाने के बाद शहंशाह बन गया।
‘‘अपने अपने तुच्छ अहं को हार कर विराट बन गया था। अब वह सबका था और सब उसके थे। कोई सीमा नहीं, अनन्त हो गया था वह।’’
दीपपर्व की उपलब्धि ही यही है। यह तभी घटित होती है, जब श्रीराम, जो वनवासी बनकर जंगलों को चले गए थे, दशानन पर विजय प्राप्त करके वापस अयोध्या में-अपनी नगरी में प्रवेश करते हैं। अपने सिंहासन पर विराजते हैं।