हिमशिखर धर्म डेस्क
काका हरिओम्
कई बार हम बहस का जो स्तर हम विभिन्न माध्यमों में देखते हैं, उसके बारे में कुछ कहने की जरूरत नहीं है. न जाने यह मानसिकता कहां से आ गई कि दूसरे को गलत साबित करने के लिए खींची जा रही लाइन को मिटाया जाए. लगता है हम या तो बड़ी लाइन खींच कर अपनी बात कहना भूल गए हैं या फिर ऐसा कर पाने के योग्य स्वयं को नहीं बना पाए हैं. हमारे महान पुरुषों ने उस तर्क को सर्वश्रेष्ठ बताया, जिसमें प्रतिपक्षी के प्रमाण से ही अपने मत की पुष्टि की जाती है. लेकिन इसके लिए जरूरी है कि दूसरे मन्तव्य का गहन चिन्तन हो. अपशब्दों का प्रयोग अमर्यादित तो है ही, यह भी बताता है कि आप वैचारिक स्तर पर कमजोर हैं. श्रीराम और श्रीकृष्ण ने कंस रावण आदि का वध किया, लेकिन कभी असंसदीय शब्दों का प्रयोग नहीं किया.
पूर्वमीमांसा के पक्षधर और आचार्य कुमारिल भट्ट ने बौद्धों को परास्त करने के लिए ‘विहार’ में रहकर उनके सिद्धान्तों और तर्कों का बारीकी से अध्ययन किया और फिर उन्हें परास्त के वैदिक मत को प्रतिष्ठित किया.
आद्य शंकराचार्य और आचार्य मंडन मिश्र के बीच हुए शास्त्रार्थ को विश्व की सबसे लंबी और विलक्षण बहस माना जा सकता है. इसमें आदि शंकर ने आचार्य मंडन मिश्र को पराजित किया था.
बाल से खाल निकालने की शुद्ध परंपरा को यदि आप देखना चाहते हैं, तो भारतीय दर्शन की धाराओं को देखिए. उनके तर्कों के पैनेपन को देखकर आपको पता चलेगा हमारे पूर्वज इस विधा में भी किसी से कम नहीं थे. लेकिन वह वैचारिक स्वतन्त्रता का आदर करते थे उद्दंडता का नहीं.
वाद, विवाद और वितंडा-यह 3 विधियां हैं बहस की. वाद में किसी का कोई निश्चित पक्ष नहीं होता-वादे वादे जायते तत्वबोधः. इसका लक्ष्य होता है सत्य का अनुसंधान और उसका सामना करना. विवाद में दो पक्ष होते हैं, जो अपने अपने मत का समर्थन करते हैं. जबकि तीसरे अर्थात् वितंडा में आने वाले प्रत्येक का तर्क का खंडन करना उद्देश्य होता है. यह बिल्कुल ऐसे ही है जैसे कोई शतरंज का खिलाड़ी दोनों ओर बैठ कर खेले.
आज की बहस किस श्रेणी में आती है, यह निश्चय कर पाना संभव नहीं हो पाता इसीलिए यह खाली, बड़बोले और बेकार के लोगों के शौक की श्रेणी में आ गयी है. कुछ तथाकथित बुद्धिमान लोग इसके माध्यम से अपनी भड़ास निकालकर अपने अहंकार की पुष्टि जरूर कर लेते हैं.
क्या आपको नहीं लगता कि अब केवल बहस करने का नहीं, कुछ सकारात्मक रूप से करने का समय है.