हिमशिखर खबर
उत्तरकाशी। मां गंगा के शीतकालीन प्रवास मुखबा गांव में इन दिनों उत्सव का माहौल है। इसका कारण यहां हो रही पांडव लीला का आयोजन है। जिसमें पहाड़ की लोक संस्कृति की झलक देखने को मिल रही है। इस मौके पर गांव के आराध्य देवी गंगा और समेश्वर देवता की विशेष पूजा-अर्चना की जा रही है।
हर वर्ष गंगोत्री धाम के कपाट बंद होने के बाद मुखबा गांव में मां गंगा की भोग मूर्ति को गंगा मंदिर में स्थापित करने के बाद पांडव नृत्य का आयोजन होता आया है। इस बार 26 अक्टूबर को गंगोत्री के कपाट बंद हुए, 27 अक्टूबर को गंगा की डोली मुखबा गांव पहुंची। स्थानीय निवासी और गंगोत्री के तीर्थ पुरोहित सदियों से चली आ रही इस अनूठी परंपरा को बरकरार रखने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। एक ओर जहां ग्रामीण अपनी अटूट आस्था के साथ संस्कृति को बचा रहे हैं, वहीं दूसरी ओर आने वाली पीढ़ी भी इससे रूबरू हो रही है।
इतिहासकार उमारमण सेमवाल कहते हैं कि पांडवों ने अधिकांश समय उत्तराखण्ड में ही व्यतीत किया। जिसके बाद वे स्वर्गारोहिणी के लिए निकल पड़े थे। पांडव नृत्य को नौ रात्रि किया जाता है। लेकिन भौगोलिक परिस्थितियों को देखते हुए यहाँ पांच रात्रि किए जाने की परंपरा है। मान्यता है कि पांडव पूजा से गांव की दैवीय आपदाओं से रक्षा होती है। इस दौरान ग्रामीण मां गंगा के लिए कई भोग-प्रसाद अर्पित करते हैं।
तीर्थ पुरोहित दीपक सेमवाल कहते हैं कि गढ़वाल क्षेत्र में पांडव नृत्य के पीछे विभिन्न तर्क दिए जाते हैं। गांव में खुशहाली, अच्छी फसल के लिए भी यह नृत्य किया जाता है। नृत्य में ढोल और दमों की विशेष थाप पर ही पांडव अपने पश्वाओं पर अवतरित होते हैं। युधिष्ठिर के पश्वा के अवतरित होने की एक विशेष थाप है, उसी प्रकार भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव आदि पात्रों की अपनी अलग विशेष थाप होती है। ढोल दमाउ के वादक विभिन्न तालों पर महाभारत के आवश्यक प्रसंगों का गायन भी करते हैं।
धियाणियों को मायके आने का मिलता है मौका
इस दौरान आपसी भाईचारा को बढ़ाने के साथ ही धियाणियों को अपने मायके आने का मौका मिलता है। इसके अलावा शहरी इलाकों में रोजगार कर रहे लोग भी अपने गांवों की ओर रूख करते हैं।