फूल देई, छम्मा देई, देणी द्वार, भर भकार: प्रकृति संरक्षण का लोकपर्व है फूलदेई, जानिए इसकी खासियत

उत्तराखंड का प्रसिद्ध लोकपर्व फूलदेई बसंत ऋतु के आगमन का प्रतीक है। देवभूमि के बच्चे परंपरानुसार सुबह-सवेरे ही अपने गांव, मोहल्ले के घरों में जा कर उनकी देहरियों पर रंगबिरंगे फूलों को बिखेरते हैं और गीत गाते हुए सुख समृद्धि की मंगलकामना करते हैं। फूलदेई को सीधे तौर पर प्रकृति से जोड़कर मनाया जाता है वहीं अपनी जड़ों से भी जोड़ कर रखने का त्यौहार माना जाता है।


पंडित हर्षमणि बहुगुणा

Uttarakhand

आज से चैत्र मास का प्रारम्भ हो रहा है। प्रातः पांच बजकर सैंतालीस मिनट पर (5/47 बजे) भगवान भास्कर मीन राशि में प्रवेश कर रहे हैं। आज की संक्रान्ति का पुण्य काल प्रातः काल ब्राह्म मुहूर्त से ही है, जो मध्याह्न तक रहेगा। आज शीतलाष्टमी व्रत, सन्तान अष्टमी व्रत, भैरवाष्टमी भी है। आज संक्रमण काल है अतः आज से ही चैत्र मास प्रारम्भ हो जाएगा।

हमारी ज्योतिषीय गणना व सूर्य संक्रमण के कारण सौरमास का महत्व अधिक है इसीलिए चैत्र मास की गिनती आज से मानी जाती है, जबकि चान्द्र मास के अनुसार इस वर्ष सात मार्च से चैत्र मास प्रारम्भ हो गया है (मानते हैं)। परन्तु प्राचीन मनीषियों ने सौरमास के महत्व को मान कर ही ऋतुओं की गणना की है, चान्द्र मास अगले वर्ष पच्चीस मार्च से प्रारम्भ होगा तब ऋतु चक्र में परिवर्तन आता है। अनेक विचार हैं जिससे भ्रमितता आ जाती है।

उत्तराखंड देवभूमि में जन-मानस का फूलों के प्रति प्रेम का सबसे बड़ा प्रमाण इस महीने के देहरी पूजन से मिलता है। अलग-अलग लोकाचार के कारण कहीं पूरे महीने, तो कहीं पन्द्रह दिन तो कहीं एक सप्ताह छोटी-छोटी बच्चियों के द्वारा देहरी पूजन फूलों से किया जाता है, कहीं कहीं बालक व बालिकाओं के द्वारा देहरी पूजन होता है, अलग अलग प्रचलित लोकाचार से समूचे उत्तराखंड में इस पर्व को मनाया जाता है। बालक बालिकाओं का समूह जंगलों से फ्यूली, बुरांश, शिलपाड़ा और अन्य अनेक प्रकार के फूलों को चुन चुन कर गांव भर की देहलीज की पूजा कर फूल चढ़ाते हैं और घर द्वार के सम्पन्न, घर भण्डार की पूर्णता की कामना परक गीत गाते हैं, इसके बदले बालक बालिकाओं को तिल, गुड़, पापड़ी और पैसों का उपहार दिया जाता है। फूलों के प्रति हमारा प्यार और दुलार अत्यधिक है और हम कामदेव व रति देवी की समृद्धि के लिए वसन्त ऋतु में अपने गांव घरों की देहलीज पर पुष्प अर्पित कर काम देव के पञ्च शरों ( अरविन्द, अशोक,आम,मल्लिकाऔर इन्दीवर) की इच्छा पूर्ति भी करते हैं तथा कामदेव के पांच बाण (सम्मोहन, उन्मादन, शोषण, तापन और मुमुर्षुमाण) इस देहरी पूजन से तृप्त होते हैं। हमारे ऋषि- महर्षियों ने जीवन को आनन्द पूर्वक जीने के अनेक तरीके समझाने के लिए बहुत विचार पूर्वक पर्वो का निश्चय किया है। कौन सा महीना ऐसा है जिसमें कोई उत्सव नहीं मनाया जाता है फिर तीज और त्योहार हमारी भावी पीढ़ी को सजग करने के शिक्षण संस्थान भी हैं। क्यों होते थे पहले दरवाजे कम ऊंचाई के? बहुत विचारणीय प्रश्न है। जिससे हम विनम्रता का पाठ पढ़ सकें। आज परिस्थिति बदलती जा रही है, मानव अति बुद्धिमान बनता जा रहा है, शायद बुद्धिमान का आशय चतुरता ने ले लिया है । ऊंची आवाज में कह कर अपने आप को सर्व श्रेष्ठ साबित करना! लोकेषणा ही तो है, यह एक कटु सत्य है कि जब से हमने अपने पर्व व परम्पराओं को छोड़ा तब से हमारे अंदर असहिष्णुता बढ़ी है। तीस चालीस साल पहले इस चैत्र मास में बालक बालिकाओं का समूह फूलों से गांव भर की दहलीजों की पूजा करने उमड़ता था और आज के समय में बच्चों में उत्साह कम ही देखने को मिलता है। जो कि चिंतनीय है।

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