- बर्त्वाल की रचनाओं को सामने लाने के लिए शंभू प्रसाद बहुगुणा के योगदान को सराहा
प्रदीप बहुगुणा, देहरादून
दून पुस्तकालय एवं शोध केन्द्र की ओर से हिमवंत कवि चंद्र कुंवर बर्त्वाल की 104 वीं जयन्ती पर एक परिचर्चा का आयोजन किया गया।
कार्यक्रम की अध्यक्षता डॉ. सविता मोहन, ने की। परिचर्चा में अन्य वक्ता के तौर पर साहित्यकार डॉ. विद्या सिंह तथा शिक्षाविद् डॉ. नालंदा पाण्डेय मौजूद थीं। परिचर्चा का संचालन बीना बेंजवाल ने किया। कार्यक्रम में वक्ताओं ने हिमवंत कवि चंद्र कुँवर बर्त्वाल के जीवन व्यक्तित्व और उनकी साहित्यिक कृतियों पर प्रकाश डाला।
वक्ताओं ने कहा कि अपने जीवन में मात्र 28 बसंत देखने वाले और अनेक विषम परिस्थितियों से गुजरते हुए इस हिमवंत कवि ने हिंदी साहित्य जगत को अपनी रचनाओं से समृद्ध किया। इस अवसर पर चंद्र कुँवर बर्त्वाल की रचनाओं को समाज के सामने लाने के लिए शम्भू प्रसाद बहुगुणा द्वारा दिये गये अथक योगदान को भी याद किया गया।
डॉ. सविता मोहन ने कहा कि यह चिंता की बात है कि हम चंद्रकुंवर जैसे कवि को भूलते जा रहे हैं। उन्होंने उनकी वेदना भरी कविताओं का जिक्र करते हुए उनकी कविता का उल्लेख किया ” जिन पर मेघों के नयन गिरे वे सबके जब हो गए हरे”।
डॉ.नालन्दा पांडे ने उनकी तुलना अंग्रेजी के कवि जॉन कीट्स से की। उन्होंने कहा कि चंद्रकुंवर की कविताओं में मृत्यु का सौंदर्य बोध जो उभरकर आया है वह अद्भुत है। डॉ.विद्या सिंह ने कहा कि प्रकृति उनके अंदर तक बसी थी। उन्होंने कविता अपने पहाड़ प्यारे भी सुनाई।
रुद्रप्रयाग जिले की तल्ला नागपुर पट्टी के मालकोटी गाँव में 20 अगस्त, 1919 को पिता भोपाल सिंह एवं माता जानकी देवी के घर में चंद्र कुंवर का जन्म हुआ। इनकी शुरुआती पढ़ाई प्राथमिक स्कूल उडामांडा और मिडिल शिक्षा नागनाथ पोखरी से हुई थी। इसके बाद पौड़ी, देहरादून व प्रयागराज से इन्होंने उच्च शिक्षा प्राप्त की। चंद्र कुँवर ने विद्यार्थी जीवन में ही कविता लिखनी आरम्भ कर दी थी।
इनकी प्रमुख प्रसिद्ध कृतियों में विराट ज्योति, नंदिनी, काफल पाक्कू, पयस्विनी, हिम ज्योत्सना, हिमवंत का एक कवि, हिरण्यगर्भ, साकेत, उदय के द्वारों पर प्रणयनी, गीत माधवी शामिल हैं। उनके अनन्य सखा शंभू प्रसाद बहुगुणा ने उनकी विलुप्त हो रही रचनाओं को प्रकाशित करने में बड़ा योगदान दिया । इनके ही अथक प्रयासों से काव्य जगत में चंद्र कुंवर हिमवंत कवि के नाम से सुपरिचित हुए। प्रयागराज में रहते हुए इन्हें टीबी के असाध्य रोग ने घेर लिया जिसके बाद वे अपने गाँव मालकोटी लौट आये। कुछ समय तक अगस्त्यमुनि स्कूल में अध्यापन कार्य करने के बाद पंवालिया में रहने लगे। यहां पर उन्होंने अनेक रचनाओं का लेखन कर जीवन का अंतिम समय बिताया। कहते हैं इसी दौरान उन्हें अपनी मृत्यु का भी आभास हो गया था, इसे कविता के रूप में उन्होंने व्यक्त भी किया था। कार्यक्रम की शुरुआत में चंद्रशेखर तिवारी ने सभी आगुन्तको का स्वागत किया।
इस अवसर पर सुनील भट्ट, कुसुम रावत, मनोज पँजानी, समर भंडारी, ज्योतिष घिल्डियाल, विभूति भूषण भट्ट, विनीता चौधरी, सुंदर बिष्ट, रजनीश त्रिवेदी सहित कई लेखक, साहित्यकार, बुद्धिजीवी, संस्कृति व साहित्य प्रेमी, पुस्तकालय सदस्य और युवा पाठक उपस्थित रहे।