काका हरिओम्
अगर एक छोटे से कमरे में, जिसकी क्षमता केवल 10 व्यक्तियों की हो, आप 20 लोगों को रख दें तो क्या होगा, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है.
बस यही स्थिति इस समूचे विश्व की है. इस दृष्टि से हम भारतीयों को विशेषरूप से सोचने, विचार करने की जरूरत है. यदि इस ओर ध्यान नहीं दिया गया तो हमारी भौतिक सुख-सुविधाओं पर ही नकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ेगा, हममें परस्पर संघर्ष की संभावनाएं भी बढ़ जाएंगी, हमें सदैव अशांति को अपने भाग्य के रूप में स्वीकार करना पड़ेगा.
कुछ इसी प्रकार के विचार व्यक्त किए थे परमहंस स्वामी रामतीर्थ जी महाराज ने, आज से लगभग 117 वर्ष पूर्व. तब स्वामी जी ने इसे भारतवर्ष की मूल समस्या बताया था.
बीच में, स्वतंत्रता के बाद इस पर पहल भी की गई, लेकिन बाद में इसका राजनीतिकरण हो गया. इसके कारणों की पड़ताल करने पर यह बात साफ-साफ दिखाई देती है कि हमारे राजनेता एक विशेष समाज को तुष्ट करने के लिए बैक फुट पर आ गए, जबकि तबका, जिसे संतुष्ट करने के लिए यह सब कुछ किया गया था वह अपने राजनीतिक लक्ष्य को साधने के लिए अपनी जनसंख्या बढ़ाने जोर-शोर से लगा रहा और अपने मकसद में सफल भी रहा.
अभी भी वह इस मामले में गंभीर नहीं है. वह जनसंख्या वृद्धि को अभिशाप नहीं, वरदान के रूप में देख रहा है और अपनी इस सोच को अपने कम पढ़े-लिखे समाज में धर्म के साथ जोड़ कर पेश कर रहा है. कुल मिलाकर वह अपनी जिम्मेदारी से बच कर निकलता हुआ उस पंक्ति में सबसे आगे खड़ा दिखाई देता है, जहां अधिकारों की बात की जा रही है. इस समय तो वह आदमी को आदमी न समझता हुआ अपने अधिकारों को पाने के आखिरी लड़ाई तक लड़ने को तैयार है-इसी दिशा में वह अपने समाज को उकसाता भी रहा है.
आइए, जरा धर्म की दृष्टि से भी इस पर विचार करें. क्या जनसंख्या को नियंत्रित करना ईश्वरीय विधान में बाधा पहुंचाना है?
एक उक्ति है कि प्रकृति योग्य का संरक्षण करती है, अयोग्य पीछे छूट जाता है या नष्ट हो जाता है. इस नियम को आध्यात्मिक नियम भी कहा जा सकता है. लेकिन इस संतुलन को प्रकृति अपनी तरह से स्थापित करती है. इसमें किसी और की प्रत्यक्षरूप से कोई भूमिका नहीं हुआ करती है. जबकि मनुष्य अर्थात् हमारे साथ ऐसा कुछ नहीं है.
हमें ईश्वर ने बुद्धि दी है ताकि हम सोच सकें. अपने और समाज के हित के लिए जो किया जाए, उससे ईश्वर प्रसन्न ही होता है. वह बुद्धिमान को यश, ऐश्वर्य और समृद्धि देता है. वह अपने भाइयों के प्रति हमारी मानसिकता को देखता है. वह हमें खुश देखना चाहता है. उसने हमारे हिस्से खुशियां ही रखी हैं.इसलिए धर्म ने आपको इस बात की पूर्ण स्वतंत्रता दी है कि आप अपनी दिशा और दशा का निर्माण स्वयं करें. स्वामी रामतीर्थ जब यह कहते हैं कि मनुष्य अपना भाग्य निर्माता स्वयं है, तो उसका यही आशय है.
हां, स्वामी रामतीर्थ इस जनसंख्या नियंत्रण के लिए सजगता और आत्मसंयम को सही साधन मानते हैं, कृत्रिम साधनों के पक्ष में वह नहीं हैं. लेकिन सामान्य व्यक्ति, जिसे ब्रह्मचर्य के महत्व की जानकारी नहीं है, जो sex में सुख की तलाश कर रहा है, उसे आत्मसंयम की बात दकियानूसी लगेगी. उसके लिए आज की विधियां ठीक हैं. लेकिन इन्हें अपनाने में भी कई तरह के ऐसे पूर्वाग्रह सामने आ खड़े होते हैं, जिनसे पठित व्यक्ति भी स्वयं को निकाल नहीं पाता है. उसके मन में कहीं न कहीं भय होता है, तभी तो आपको अकसर इन उपायों को अपनानेवाली स्त्रियां मिलेंगी. उन्हें ऐसा करने को विवश किया जाता है.
‘हम दो, हमारे दो’ के चिंतन में बदलाव तो आया है. अब लोग ‘एक बच्चा, लड़की या लड़का’ के नजरिए से परिवार को देखने लगे हैं. लेकिन इसमें सजगता कम विवशता ज्यादा है. जिन्हें रियायतें मिल रही हैं, वह इस बारे सोचने को कतई तैयार नहीं है. इसलिए जरूरत है इस बात की कि जो जनसंख्या के मामले में गंभीर नहीं है, उसको दी जाने वाली सुविधाओं से वंचित कर दिया जाए. रिवॉर्ड और पनिशमेंट की नीति भी इस दिशा में कारगर हो सकती है. यह नियम प्रत्येक देशवासी पर एक समान लागू होना चाहिए क्योंकि इसमें सभी का हित अन्तर्निहित है. जनसंख्या पर नियन्त्रण देश हित की दृष्टि से बहुत जरूरी है.