संस्कृति के इस दीपक को बुझने न दें

परमहंस स्वामी निखिलेश्वरानंद

Uttarakhand

आधुनिक युग में प्रगति का चक्र बहुत तेजी से घूम रहा है। आज के समय में मानव हर जगह अपने आप को स्तब्ध पा रहा है। उसे अपनी स्थिति समझ में नहीं आ रही है। वह अपने को स्थिति की ऐसी गहराई में पा रहा है, जहां उसका अतीत अप्रतिलभ्य है। उसका वर्तमान अनिश्चित है और उसका भविष्य एक प्रश्नचिन्ह है।

तो क्या यह वह सन्धिकाल है जिसके आगे आशा और संतोष से भरा एक दिन है, या जिसके आगे अंधकार और दुःखभरी एक रात्रि है। मनुष्य ने अपने बाहर चतुर्दिक आलोक के मध्य अपने अंतर में इतना अंधकार, अपने बाहर अमित समृद्धि के संदर्भ में इतनी दरिद्रता और चारों और इतनी भीड़ के बीच इतना सूनापन, अपने इतिहास में कभी अनुभव नहीं किया।

इस प्रकार आधुनिक क्रांति वस्तुतः एक आध्यात्मिक क्रांति है। आधुनिक मानव इस अंधकार के घेरे में से निकलने के लिए प्रकाश या सहारे को ढूंढ रहा है। आज उसका ह्रदय सत्य के लिए, ज्योति के लिए और जीवन के लिए चीत्कार कर रहा है। सब तथ्य यह बताते हैं कि समस्त आधुनिक जगत एक शांत आधुनिक विप्लव की वेदना में है। इसलिए आज हमें इस वैदिक प्रार्थना की जरूरत है –
असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय।

आज जब हम इस जीवन यात्रा के पथ पर पीछे मुड़कर देखते हैं तो पूर्व में भी इस अंधकार को मिटाने के लिए आदि गुरू शंकराचार्य जी ने उस दीपक में अपने शरीर को तेल की तरह बना कर डाला और उस ज्ञान के दीपक को बचाए रखा। उन्होंने अपनी जिंदगी और जीवन को दांव पर लगाकर उस बुझते दीपक को संरक्षण देने का प्रयास किया। फिर कुछ उजाला फैला, कुछ समय के लिए फिर रोशनी हुई। कुछ समय के लिए ही सही मगर फिर कुछ साफ-साफ दिखाई देने लगा। पर बाद में एक झपट्टे में ही वह रोशनी मद्धिम पड़ने लगी। फिर हमारी पीढ़ियां शेरो-शायरी में खोती चली गई। फिर हमारी जवानी घुंघुरूओं की रूनझुन में सार्थकता अनुभव करने लगी। फिर उस दीपक पर अंधकार के इतने मोटे-मोटे पर्दे टांग दिए गए कि दीपक का अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया।

इसका अंदाजा आज इस बात से लगाया जा सकता है कि आज के समय में हमारी पीढ़ी में कईयों को तो को तो यह अहसास ही नहीं है कि हमारे पूर्वजों में वशिष्ठ और विश्वामित्र सरीखे कई ऋषि थे। उन्हें गोत्र शब्द का उच्चारण ही याद नहीं रह गया है। केवल विवाह में ब्राह्मण उनके गोत्र का उच्चारण कर भूले भटके उन ऋषियों में से एक का नाम उच्चारण करता है तो हम अजनबियों की तरह चैंक उठते हैं कि गालिब, मीर, मिल्टन और शैक्सपियर जैसे परिचित नामों में से इस ब्राह्मण ने किसका नाम उच्चारण कर दिया। फिर अपने आपको समझाकर गौरवान्वित हो जाते हैं कि यह एक जल्दी पूजा कराने वाले ब्राहमण के मंत्रों का ही एक भाग होगा।

पच्चीस हजार वर्ष के इतिहास में अंग्रेजों ने पहली बार हमारे खून को टेक्नोलाजी के नाम पर ठंडा कर दिया। पश्चिम के ज्ञान ने हमको अपने ही देश में अजनबी बना दिया। हमें जैम्स, स्टुअर्ट, विक्टोरिया जैसे नाम ज्यादा परिचित लगने लगे। इंग्लैंड का इतिहास हमारी जिन्दगी के निकट रहा और हम उस उजाड़ जंगल में आगे बढ़ने में ही गौरवशाली अनुभव करने लगे। जिसका कोई अंत नहीं था।

यह सब कुछ हमारे रक्त में मिलता गया। हमारे चेहरे बदल गए। हमारी आंखों में अंग्रेजियत झलकने लगी। सिर पर हैट और गले में टाई बांधकर शीशे में अपने आपको देखने का अभ्यास करने लगे। इसी खून ने हमें कुछ महाज्ञान भी दिया। यह महाज्ञान था, पूजा-पाठ क्या होता है, देवताओं के दर्शन करना दकियानूसी है। सुश्रुत ने एक बार कहा था कि सूखा और टूटा हुआ पत्ता हल्की हवा में उसी ओर मुड़ने लगता है, जिधर हवा बहती है। मगर गहरी जड़ों वाला वटवृक्ष तेज अंधड़ में भी एक तरफ से दूसरी तरफ झुकता हुआ भी उखड़ता नहीं। जिनके पास अपनी जड़ें नहीं होती, वे केवल ओपन मांइडेड हो सकते हैं।
पश्चिम के किसी भी विद्वान से पूछ लीजिए, वह बता देगा कि हमारी विद्याएं और हमारी तकनीक हमारी स्वंय की जीवन पद्धति से निकली है। उनके द्वारा ही हम अपनी और समाज की समस्याओं का समाधान निकाल सकते हैं।

अब कोई उल्लू भी आपको बता देगा कि भारतीय जीवन पद्धति अमेरिका या यूरोप की जीवन पद्धति से अलग है। यूरोपीय विद्याओं और तकनीक में ऐसा सार्वकालिक कुछ भी नहीं है, जो किसी भी परिस्थिति में सच हो। जबकि भारतीय चिंतन और दर्शन हजार वर्ष पहले भी उतना ही सच था, जितना आज है। यहां पर मुझे पश्चिम के वैज्ञानिक शूमाखर की उक्ति याद आती है, हे वत्स! पश्चिम के माॅडल और टेक्नोलाजी के पीछे पड़े हुए तुम लोगों पर इसलिए तरस आता है, कि तुम अपनी प्रतिभा, शक्ति, समय और पैसा उन समस्याओं के समाधान में बर्बाद कर रहे हो जो तुम्हारे समाज की है ही नहीं, बल्कि मेरे समाज की है।

जब आप अपनी चाबी किसी अनजान ताले में लगाकर उसे खोलने की कोशिश करेंगे तो आप ताला तो बिगाड़ेंगे ही। उसके साथ ही कुंजी भी, हमने अभी तक यही किया है। हमने अपने जीवन और समाज के बंद पड़े तालों को उन चाबियों से खोलने की कोशिश की है, जो उनके लिए बनी ही नहीं है। इसलिए हम पिछले सैकड़ों वर्षों से अपने तालों और चाबियों को खराब ही कर रहे हैं।

हम हैं, और बहुत कुछ हैं। इसका प्रमाण लेने के लिए हमें किसी दफ्तर में जाने की जरूरत नहीं है। हम मृत्युंजयी संस्कृति के देशवासी हैं। हमें बाहर से उच्च तकनीक को गले नहीं लगाना है। अपितु अंदर से अपने सत्य का साक्षात्कार करना है। यह हम स्वयं होकर ही कर सकते हैं। और जब ऐसा होगा, तभी हम अपने आपको पहचान सकेंगे।

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