सुप्रभातम्: ‘व्यास कोई एक व्यक्ति नहीं होता, प्रत्येक द्वापर में नवीन व्यास हुआ करते है’

हिमशिखर धर्म डेस्क

Uttarakhand

बाल मुकुंद मिश्र

पुराण साहित्य का भारतीय वाङ्मय में अपना एक महत्त्वपूर्ण स्थान है, उसका एक अपना इतिहास है। वैसे पुराण स्वयं देश और राष्ट्र के कल्प-कल्पान्तरों के धार्मिक इतिहास महाग्रन्थ हैं, पर उनका स्वयं का इतिहास भी, अष्टादश महापुराणों को समझने के लिये उनको जानना पहली आवश्यक बात है।

वेद-पुराण शास्त्रों का कल्प के प्रथम बार द्वापर युग की समाप्ति के समय, स्वयं स्वयम्भू ने आदिम व्यास का कार्यभार अपने ऊपर ओट कर वेद-वेदाङ्गों की यथावत् संकलना कर, शास्त्रों को सरल एवं सुलभ स्वरूप प्रदान किया, अर्थात् वर्तमान समय में प्राप्य ग्रन्थके रूप में परिणत किया।

उपर्युक्त शास्त्र – संकलना के समय में ही ऐतिहासिक और पौराणिक प्राचीनतम सामग्री को अष्टादश पुराण ग्रन्थाकार में संकलित किया गया। शास्त्रीय सृष्टि-गणना के अनुरूप वर्तमान कल्प का नाम ‘वाराह कल्प’ है और जिसके छः मन्वन्तर बीतकर इस समय सातवाँ ‘वैवस्वत मन्वन्तर’ चल रहा है, इस समय अट्ठाईसवें कलियुग का यह युग है।

पौराणिक साहित्य-सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक द्वापर के अन्त में और कलियुग के आरम्भ में व्यासदेव प्रकट होकर युगधर्म से अव्यवस्थित एवं कालक्रम से विशृङ्खल शास्त्रों का क्रमबद्ध समीचीन संकलन करते हैं।

कालेनाग्रहणं दृष्ट्वा पुराणस्य ततो नृप।

व्यासरूपं विभुं कृत्वा संहरेत् स युगे युगे ॥

चतुर्लक्षप्रमाणेन द्वापरे द्वापरे सदा।

तदष्टादशधा कृत्वा भूर्लोकेऽस्मिन् प्रभाषते ॥

तदर्थोऽत्र चतुर्लक्षः संक्षेपेण निवेशितः ।

पुराणानि दशाष्टौ च साम्प्रतं तदिहोच्यते ॥

इसी भाव की पुष्टि निम्न अवतरण से भी स्पष्ट है-

कालेनाग्रहणं दृष्ट्वा पुराणस्य तदा विभुः।

व्यासरूपस्तदा ब्रह्मा संग्रहार्थं युगे युगे ॥

चतुर्लक्षप्रमाणेन द्वापरे द्वापरे जगौ।

तदष्टादशधा कृत्वा भूलोकेऽस्मिन् प्रकाशितम्॥ (पद्म पुराण, सृष्टि खंड) 

समय के प्रभाववश समस्त पुराणों के ग्रहण में असमर्थता- कारण व्यास स्वरूपी भगवान् ब्रह्माजी युग-युग में संग्रह के निमित्त चार लाख श्लोकों वाले पुराणों की रचना (सम्पादन सहित) प्रत्येक द्वापर युग में रचते हैं, जो अठारह भागों, अष्टादश पुराणों के रूप में इस भूलोक में प्रकाशित होते हैं।”

इस कल्प में व्यतीत हुए द्वापर युगों की संख्या के अनुसार अब तक अट्ठाईस व्यास हो चुके हैं। अन्तिम व्यास का नाम श्रीकृष्णद्वैपायन व्यास था, जिनकी अवशिष्ट शास्त्र-कृतियाँ आज सौभाग्यवश हमें प्राप्य हैं। उनतीसवें द्वापर में यानी आगामी समय में जो व्यास होंगे, उनका नाम होगा-श्री- अश्वत्थामा व्यास।

श्रीव्यासजी का वर्णन हमारे पुरातन साहित्य में विस्तार के साथ आया है। संक्षेप में व्यास का स्वरूप समझ लेना ही यहाँ पर्याप्त है व्यासजी का परिचय है-

‘व्यास कोई एक व्यक्ति नहीं होता, प्रत्येक द्वापर में नवीन व्यास हुआ करते है’। व्यास किसी का नाम नहीं, किंतु पदवी है। गोलवृत्त में जो एक सीधी रेखा निकल जाती है, उसका नाम व्यास है। इसी प्रकार वेदवृत्त में जो सीधा निकल जाय उसका नाम वेदव्यास होता है। जितने व्यास हुए हैं, वे वेद और पुराणतत्त्वके पूर्ण ज्ञाता हुए हैं। ‘ (युक्तिविशारद पं० कालूरामजी शास्त्रीकृत, ‘पुराणवर्म’, प्र० संस्करण, पृ० १३४ )

पुराणों के वक्ता हैं-

अष्टादशपुराणानां वक्ता सत्यवतीसुतः।

(शिवपुराण, रेवाखण्ड)

‘सत्यवतीनन्दन श्रीव्यासजी अठारह पुराणों के वक्ता हैं।” वर्तमान शास्त्र श्रीपराशर के पुत्र श्रीकृष्णद्वैपायन व्यास के द्वारा सम्पादित, निर्मित, रचित एवं ग्रन्थित हैं, जिन्हें आज लगभग पाँच हजार वर्ष से कुछ अधिक बीत चुके हैं।

वर्तमान शास्त्र-संहिताएँ, पुराण श्रीकृष्णद्वैपायन व्यास के द्वारा ही इस रूप में क्रमबद्ध संकलित किये हैं। इस बात की चर्चा प्रायः सभी पुराणों में प्रकारान्तर से और कुछ विभिन्न रूपों में आयी है।

महामहिम श्रीकृष्णद्वैपायन ने अन्य श्रुति-वाङ्मय-शास्त्रों के अनन्तर यदि ‘पुराण’ की रचना की तो इसका पुराण नाम कैसे संगत होगा? इसका उत्तर निरुक्त देता है- वह पुरातन होने के साथ ही नूतन है ।

‘पुराणं कस्मात् – पुरानवं भवति’ ( निरुक्त ३ । १९ । २४ )

‘पुराणं पञ्चलक्षणम्’ ( अमरकोश १ । ६ । ५ )

और निम्न प्रमाणके अनुसार-

सर्गश्च प्रतिसर्गश्च वंशो मन्वन्तराणि च।

वंशानुचरितं विप्र पुराणं पञ्च लक्षणम् ॥ (ब्रह्मवैवर्तपुराण)

१. सर्ग (तत्त्वोत्पत्तिज्ञान एवं सूक्ष्म रचना अर्थात् महाभूतों की सृष्टि का वर्णन ), २. प्रतिसर्ग (सृष्टि-सृजन एवं विविध रचना अर्थात् सकल सृष्टि का वर्णन), ३. वंश का वर्णन, ४. मन्वन्तर (काल एवं समय-खण्ड अर्थात् कल्प- कल्पान्तरों, मन्वन्तरों का वर्णन), ५. वंशानुचरित वंशों के प्रधान विशिष्ट महापुरुषों के चरित्रों का वर्णन – पुराण इन पाँच लक्षणों से युक्त हैं।

पुराण आदिकाल की कृति है, जिसके सर्वप्रथम प्रकाशक श्रीब्रह्माजी हैं। उनसे मुनियों ने सुना और प्रत्येक कल्प में देवता, ऋषि, मुनि आदि ने पृथक्-पृथक् उनकी संहिता का निर्माण किया। अपने-अपने समय में व्यासजी उन्हीं ऋषि-मुनि आदिकृत कृतियों एवं वाक्यों को संक्षेप में सम्पादित कर और देवता-ऋषि-मुनि आदिके मतों-विचारों को यथावत रखकर, यत्र-तत्र आवश्यकतानुसार प्रसङ्ग आदि की पूर्ति वा स्पष्टीकरण के लिये अपने वचनों सहित पुराण-रचना करते हैं।

पुराण रचना में विभिन्न समय का इतिहास तथा विभिन्न विद्वानों के मत हैं। विभिन्न कल्पों के धर्म तथा कथानक वचनों के कारण पुराणों की कथाओं में समानधर्मा भाषा, शैली, वर्णन एवं प्रसङ्गों की सर्वथा समता होनी सम्भव नहीं। कल्पादि भेद से कथाओं में अन्तर का आ जाना तो सम्भव है ही।

पुराणों की कथाओं में मतभेद के विषय में यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि यदि कहीं एक से दिखाई देने वाले नाम, विषय, रूप, रचनाओं में कुछ विभिन्नता है तो उसका कारण कल्प, मन्वन्तर-भेद ही समझना चाहिये। अर्थात स्थल विभिन्न दो कल्पों मन्वन्तरों के है, एक के नहीं इसीलिए उनमें भेद है । इस मत का स्पष्टीकरण निम्न वचन से हो रहा है-

क्वचित् क्वचित्पुराणेषु विरोधो यदि लभ्यते ।

कल्पभेदादिभिस्तत्र व्यवस्था सद्भिरिष्यते ॥

“जहाँ कहीं कथा का भेद वा अन्तर्विरोध प्रतीत हो, वहाँ कल्पभेद से व्यवस्था लगायी जाती है।”

विद्वानों का भी इसी प्रकार का मत है—

जिस समय पुराण-संहिता निर्गत हुई थी, वह एक ही थी। और व्यासजी ने उसको संक्षेप में अठारह भागों से समन्वित किया और पीछे सूत जी और उनके शिष्यों द्वारा उनके विभाग और कई प्रकार से संस्कार हुए हैं।

फिर वे आगे लिखते हैं-

‘ब्रह्मा की कही हुई और व्यास द्वारा संक्षिप्त की हुई उस आदिसंहिता से पुराण संहिता संकलित हुई है ।”

(म० म० पं० ज्वालाप्रसाद मिश्रकृत ‘अष्टादश-पुराण-दर्पण’ उपोद्घात)

पुराणों की संख्या भारतीय साहित्य में परम्परागत निश्चित रूप में चली आ रही है, जो है—अठारह। इन अठारह महापुराणों की पहचान के लिये निम्न श्लोक, जिसमें सूत्ररूप में महापुराणों की नामावली दी गयी है, महापुराणों की जानकारी लिये अति उपयोगी है, जो इस प्रकार है-

‘मद्वयं’ ‘भद्वयं चैव’ ‘ब्रत्रयं’ ‘वचतुष्टयम्’।

अ, ना, प, लिं, ग, कू, स्कानि पुराणानि पृथक् पृथक् ॥ (देवी भागवत १ । ३ । २ )

मकारादि दो-१ मत्स्य, २ मार्कण्डेय और भकारादि दो – १ भविष्य, २ भागवत ।

ब्रकारादि तीन–१ ब्रह्म, २ ब्रह्मवैवर्त, ३ ब्रह्माण्ड और वकारादि चार–१ वायु (शिव), २ विष्णु, ३ वामन, ४ वाराह ।

आद्य अक्षरों के अनुसार १ अग्नि, २ नारद, ३ पद्म ४ लिंग, ५ गरुड़, ६ कूर्म, ७ स्कन्द – ये विभिन्न सब पुराण कुल मिलाकर अठारह (महा) पुराण हैं।

नारदपुराण

नारदोक्तं पुराणं तु नारदीयं प्रचक्षते ।

‘नारदोक्त पुराण ही ‘नारदीय’ नाम से प्रख्यात है ।’ नारद-महापुराण के विषय में अन्य पुराणों में लिखा है-

यत्राह नारदो धर्मान् बृहत्कल्पाश्रयाणि च।

पञ्चविंशसहस्राणि नारदीयं तदुच्यते॥

( मत्स्य ० अ० ५३ श्लोक २३)

‘श्रीनारदजी ने बृहत्कल्प-प्रसङ्ग में जिन अनेक धर्म- आख्यायिकाओं को कहा है, वही २५००० श्लोकयुक्त संकलना नारद महापुराण है ।” और–

ऋणु विप्र प्रवक्ष्यामि पुराणं नारदीयकम्।

पञ्चविंशतिसाहस्रं बृहत्कल्पकथाश्रयम् ॥

‘आपके प्रति नारदीय पुराण कहता हूँ । बृहत्कल्प की कथा सहित इस पुराण की पद्य-संख्या २५००० है ।’

नारदपुराण में है क्या ? इस प्रश्न का उत्तर निम्न सरस पदों में अत्यन्त कुशलता से दिया गया है-

शृणु विप्र प्रवक्ष्यामि पुराणं नारदीयकम्।

पञ्चविंशतिसाहस्रं बृहत्कल्पकथाश्रयम्॥

सूतशौनकसंवादः सृष्टिसंक्षेपवर्णनम् ।

नानाधर्मकथाः पुण्याः प्रवृत्ते समुदाहृताः॥

प्राग्भागे प्रथमे पादे सनकेन महात्मना ॥

द्वितीये मोक्षधर्माख्ये मोक्षोपायनिरूपणम् ॥

वेदाङ्गानां च कथनं शुकोत्पत्तिश्च विस्तरात् ।

सनन्दनेन गदिता समुद्दिष्टं पशुपाशविमोक्षणम् ।

मन्त्राणां शोधनं दीक्षा मन्त्रोद्वारश्च पूजनम् ॥

प्रयोगाः कवचं नाम सहस्रं स्तोत्रमेव च।।

गणेशसूर्यविष्णूनां नारदाय तृतीयके।।

पुराणं लक्षणं चैव पुराणं दानमेव च ।

पृथक् पृथक् समुद्दिष्टं दानं फलपुरस्सरम् ॥

चैत्रादिसर्वमासेषु तिथीनां च पृथक् पृथक् ।

प्रोक्तं प्रतिपदादीनां व्रतं सर्वाघनाशनम् ॥

सनातनेन मुनिना नारदाय चतुर्थके ।

पूर्वभागेऽयमुदितो वृहदाख्यानसंज्ञितः ॥

अस्योत्तरविभागे तु एकादशीव्रते ।

वसिष्ठेनाथ संवादो मान्धातुः परिकीर्तितः ॥

नारद-महापुराण में विविध ज्ञान-विज्ञान पूर्ण बातें, अनेक इतिहास-गाथाएँ, गोपनीय अनुष्ठान आदि के वर्णन, धर्म निरूपण तथा भक्ति-महत्त्वपरक विलक्षण कथाएँ, व्याकरण, निरुक्त, ज्यौतिष, मन्त्र-विज्ञान, समस्त महापुराण का विवरण, बारह महीनों की तिथियों के व्रत की कथा एकादशी व्रत कथा तथा गङ्गा-माहात्म्य आदि का अलौकिक और महत्त्वपूर्ण व्याख्यान संग्रहीत हैं। विषय को सरल बनाने की दृष्टि से भी नारद पुराण को विषयतारतम्य के अनुसार पूर्व और उत्तर- दो भागों में रक्खा गया है।

पूर्वभागमें सनक, सनन्दन, सनातन, सनत्कुमार– इन ब्रह्मपुत्रों का श्रीनारदजी के प्रति कथन है। ऐसा भी माना जाता है कि श्रीनारदजी का अपने इन ब्रह्मपुत्र चारों भाइयों के प्रति कथन है।उत्तरभाग में- वसिष्ठ द्वारा मान्धाता के प्रति कहा गया वर्णन है ।बृहन्नारदीयपुराण भी विष्णुजी की स्तुति और वैष्णवों कर्तव्योंसे परिपूर्ण एक आधुनिक रचना है।’

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