हिमशिखर धर्म डेस्क
पुराण कल्याण के मूल स्त्रोत हैं। इनमें अतुल्य वैराग्य, ज्ञान, उपासना तथा सात्विक सिद्धियों का भण्डार भरा है। गोस्वामीजी को पुराण प्राणों से भी अधिक प्यारे थे। पुराणों के अध्ययन से उनमें सभी दिव्य गुण आ गये और वे भक्ति, वैराग्य, ज्ञान, निर्मल विचार और दयाके मूर्तिमान् स्वरूप बन गये। नाना पुराणों के प्रगाढ़ अध्ययन के बल पर उन्होंने ‘रामचरितमानस’ की वह दिव्य सुरसरिता बहायी, जिसमें स्नान कर संसाररूपी कटाह के विषम विषयरूपी तीक्ष्णोष्ण तैल में पड़ा हुआ प्राणी तत्काल नैरुज्य लाभकर अद्भुत सुख, शान्ति एवं सिद्धि प्राप्त करता है। वैसे ही विरक्तशिरोमणि श्रीशुकदेवजी ने श्रीमद्भागवत महापुराणकी दिव्य पवित्र अमृतमयी धारा प्रवाहित की। पुराणों में दिव्य मङ्गलमय भगवचरित्रों का वर्णन है। यदि किसी की उनके श्रवण, कीर्तनादि में प्रगाढ़ श्रद्धा उत्पन्न हो गयी तो समझना चाहिये कि उसका काम बन गया। पर यह श्रद्धा अवश्य अत्यन्त सुदृढ़ होनी पुरा चाहिये। यह नहीं कि कथा सुन रहे हैं, ध्यान जूते पर लगा है, कोई अथवा राग-रंग, संगीत, वाद्य के अभाव में कथा अत्यन्त फीकी लग रही है- यह कथा में श्रद्धा नहीं, यह तो रागरंग, संगीत वाद्य में श्रद्धा हुई। सात्त्विक श्रद्धा का उदाहरण वायु-पुराणोक्त माघ माहात्म्य का सुमेधा ब्राह्मण है, जिसने १०० वर्ष तक पूर्ण नियम से सम्पूर्ण पुराणों की कथा सुनी थी। कथा-श्रवण में वैराग्य, भगवच्चरणाश्रय आवश्यक है, पर वैराग्य तथा साधकों के सहज दोष क्रोध, ईर्ष्या, घृणादि कभी न होना चाहिये। अपितु प्रत्येक प्राणी को भगवत्स्वरूप मानकर मन-ही-मन नमस्कार करना चाहिये और सभी के प्रति अत्यन्त सद्भावना एवं सेवा का व्यवहार रखना चाहिये।
पुराणों की प्राचीनता और दिव्यता
पुराणों में सभी प्रकार की अलौकिक सिद्धियों का उल्लेख है। साथ ही उनके प्राप्ति के साधनों, मन्त्रों का भी साङ्गोपाङ्ग वर्णन है। विधिपूर्वक अनुष्ठान कर आज भी मनुष्य उन्हें सरलता से प्राप्त कर सकता है। कुछ लोगों की कल्पना है कि पुराण अत्यन्त अर्वाचीन तथा साधारण मनुष्य रचित हैं। प्रमाण में वे भूतपूर्व राजाओं की वंशावली आदि उद्धृत करते हैं, किंतु यह ठीक नहीं। उनमें बहुत सी भविष्य की बातों का भी उल्लेख है। इसे देखकर कोई आगे का मनुष्य भी इसी प्रकार की आशङ्का कर सकता है। हो सकता है थोड़ी-बहुत गड़बड़ियाँ हुई हाें, जो पुराणों के पाठ-भेद से द्योतित हैं; पर ये सर्वथा आधुनिक या लौकिक नहीं। वाल्मीकि रामायण में सुमन्त्र ने सनत्कुमार- द्वारा पौराणिक कथा सुनने की बात कही है’। आनन्द-रामायण में जगह-जगह श्रीराम द्वारा पुराण-श्रवणकी चर्चा आती हैं। पूज्य गोस्वामी श्रीतुलसीदासजीने भी-
“बेद पुरान बसिष्ठ बखानहिं। सुनहिं रामु जद्यपि सब जानहिं ॥’
‘बेद पुरान सुनहिं मन लाई। आपु कहहिं अनुजहिं समुझाई ॥”
इत्यादि चौपाइयों में इस तत्त्वका दिग्दर्शन कराया है। वस्तुतः पुराण सर्वथा अनादि हैं। श्रीव्यास द्वारा इनका प्रतिकल्प में आविर्भाव होता है। धीरे-धीरे इनमें अस्त- व्यस्तता आने लगती है। उदाहरणार्थ आज मार्कण्डेय-पुराण, वाराह पुराण आदि के बहुत लंबे अंश नष्ट हो गये। कोई यदि अबाध – दिव्य-ज्ञान-सम्पन्न तपस्वी हो तो इन्हें अब ठीक करे। इसीलिये प्रतिद्वापर में भिन्न-भिन्न दिव्य ज्ञान- मय व्यासोंकी चर्चा आती है।
नारद पुराणका महत्त्व
पुराण सभी भगवान् के ही स्वरूप कहे जाते हैं। उनमें समस्त कल्याण- गुणगणनिलय प्रभुकी महिमा विशेष ढंगले अधिकाधिक मात्रा में कही गयी हैं। नारद-पुराण में भी आद्योपान्त सचिदानन्दघन, परमानन्दकन्द विशुद्ध हर सत्वमूर्ति श्रीहरि की लीलाओंका ही गान हुआ है। नारद- पुराण का सिद्धान्त बड़ा ही हृदयग्राही तथा स्पष्ट है । परम पुरुषार्थ मोक्ष अथवा भगवत्प्राप्ति अथवा भगवत्प्रसादाप्ति के लिये भक्ति ही सुगमतम उपाय है, किंतु नारदपुराण की दृष्टि में भक्ति के साथ वर्णाश्रम धर्म एवं शास्त्रोक्त कर्तव्यों का पालन भी अत्यावश्यक है। कदाचारपरायण, सदाचार त्यागी भक्त पर भगवान् कभी प्रसन्न नहीं होते। भक्तिहीन सक्रियाएँ भी इसी प्रकार निरर्थक एवं श्रममात्र होती हैं। इसी प्रकार भूतद्रोही, क्रोधी, ईर्ष्यालु भक्त की आराधना भी सफल नहीं होतीं। यद्यपि कल्याणकृत् प्राणी, सुदुराचारी भी हो और वह अनन्यभाव से भगवद्भजन करता हो, तो उसका विनाश नहीं होता, उसकी दुर्गति नहीं होती और वह भी पीछे धर्मात्मा बनकर शान्तिलाभ करता ही हैं, फिर भी उसे तत्काल सिद्धि तो नहीं ही मिलती ।
इसी तरह भगवन्नाम-जप से सारी अलौकिक क्रिया, अवाङ्मनसगोचर, अकल्पित, दुर्लभ सिद्धियाँ भी प्राप्त होती हैं; किंतु इसे भी काम, क्रोध, ईर्ष्या, गुरु-अवज्ञा, साधु निन्दा, हरि-हर में भेद नाम के बल पर पापाचरण, नाम के फल अर्थवाद का भ्रम, नास्तिकों को नाम माहात्म्य बतलाना इत्यादि दोष बचाना चाहिये, यद्यपि इन नामजप सम्बन्धी दस दोषों का पद्मपुराण, वाराहपुराण, आनन्दरामायण, हरिभक्ति-विलास की आदि ग्रन्थों में विस्तारपूर्वक निरूपण हुआ है और साधारण जनता में भी
‘राम राम सब कोइ कहै दशरथ कहै न कोय।
एक बार दशरथ कहै, कोटि यज्ञ फल होय ॥
इस दोहे से प्रसिद्धि है, फिर भी तथाकथित दोषों से ग्रस्त रहने से साधकों को पूर्ण सिद्धि नहीं प्राप्त होती। ऐसे तो भगवन्नाम में प्रवृत्ति, तत्कारणभूत सत्सङ्ग एवं नर-शरीर की प्राप्ति अथच तत्तद् दोष की निवृत्ति एकमात्र भगवत्कृपा पर ही अवलम्बित है, फिर भी शुभ संकल्पों द्वारा परमेश्वर का वरण करना एवं शुभ कर्मों में प्रवृत्ति की चेष्टा प्राणी के कल्याण के लिये, अत्यन्त अपेक्षित है, यह बात ब्रह्मसूत्र के ‘परात्तु तच्छ्रुतेः’ ‘कृतप्रयत्रापेक्षः’ ‘वैषम्यनैर्धृण्यादि’ सूत्रों, गीता के ‘ददामि बुद्धियोगम्’ आदि श्लोकों में अच्छी तरह से बतलायी गयी है। नारदपुराण में इस रहस्य पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है।