” *मांगलिक भोर का हार्दिक अभिनन्दन एवं सु- स्वागतम्* ”
“रक्षा बन्धन अर्थात किसी को अपनी रक्षा के लिए बांध लेना ”
पंडित हर्षमणि बहुगुण
“श्रावणमास की पूर्णिमा को मनाया जाने वाला यह पर्व सभी वर्णों के लिए है। भाई बहन को स्नेह की डोर में बांधने वाला त्यौहार बहन भाई के हाथ में रक्षा सूत्र बांधते समय कहती है कि – ‘भैया मैं तुम्हारी शरण में हूं, मेरी सब प्रकार से रक्षा करना।’
एक बार भगवान श्री कृष्ण के हाथ में चोट लगने पर व रक्त श्राव होने पर द्रोपदी ने तत्काल अपनी साड़ी का कोर फाड़ कर श्रीकृष्ण (भाई) के हाथ में बांध दिया, इस बन्धन के ऋण से मुक्त होने के लिए श्रीकृष्ण ने दु:शासन द्वारा चीर खींचते समय द्रोपदी की लाज रखी। पहले ऋषि लोग श्रावण पूर्णिमा को ही उपाकर्म (वेदाध्ययन आरम्भ के उत्सव का नाम) कराकर अध्ययन कार्य आरम्भ करते थे। अतः यह अध्ययन की दृष्टि से प्रथम दिवस है। प्रेत बाधा को दूर करने का दिवस है रक्षाबंधन का पर्व।
युधिष्ठिर के पूछने पर श्रीकृष्ण ने बताया था कि–एक बार देव दानवों में बारह वर्षों तक युद्ध हुआ और दानव विजयी हुए व इन्द्र देवताओं सहित अमरावती चले गए। दैत्य राज ने तीनों लोकों को बश में कर घोषित किया कि मनुष्य यज्ञ कर्म न करें, सब मेरी पूजा करें, जिसे यह स्वीकार न हो वह राज्य छोड़कर चला जाय। धर्म का नाश होने से देवताओं का बल घटने लगा, अतः देवराज ने अपने गुरु बृहस्पति जी को बुला कर कहा कि — गुरु जी मैं शत्रुओं से घिरा हुआ हूं व अब प्राणान्त संग्राम करना चाहता हूं, जो होना होगा होकर रहेगा अतः गुरु बृहस्पति जी ने रक्षा विधान करने को कहा। श्रावणी के दिन प्रातः काल ही रक्षा विधान सम्पन्न किया गया।
*येन वद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबल: ।*
*तेन त्वामभिवध्नामि रक्षे माचल माचल ।*
इस मंत्रोञ्चारण से देवगुरु ने श्रावणी पूर्णिमा के ही दिन रक्षा विधान किया। सहधर्मिणी इन्द्राणी के साथ इन्द्र ने गुरू बृहस्पति की उस वाणी का अक्षरशः पालन किया और देवी इन्द्राणी ने ब्राह्मण पुरोहितों द्वारा स्वस्तिवाचन करवा कर इन्द्र के दाहिने हाथ में रक्षा की पोटली बांधी , इसी के बल पर इन्द्र ने दानवों पर विजय प्राप्त की। यह थी प्रेत बाधा से मुक्ति की तैयारी।
हिंदी साहित्य के लोकप्रिय साहित्य कार नाटक कार श्री हरि कृष्ण प्रेमी ने अपने नाटक ‘रक्षाबंधन’ में राखी के महत्व को प्रकट करती हुई रानी कर्मवती का यह कथन कहलवाया कि ” मेवाड़ में ऐसी रंगीन श्रावणी कभी न आई होगी। भाइयों क्षत्राणियों की राखी सस्ती नहीं होती, हमारी राखी के तांगों का मूल्य सर्वस्व बलिदान है, जिन्हें प्राण चढ़ाने का शौक हो वे ही हमारी राखियां स्वीकार करें।”
इस दिन को संस्कृत दिवस के रूप में भी मनाया जाता है। हयग्रीव जयन्ती, ऋषि तर्पण, गायत्री जयन्ती, ऋक् उपाकर्म, यजुर्वेद- अथर्ववेद उपाकर्म आदि नामों से भी जाना जाता है। कल प्रातः काल 6 -16 के बाद राखी का मुहुर्त है, मत मतान्तर अलग-अलग हो सकते हैं। तो आइए इस पुनीत पर्व को यादगार बनाने का प्रयास करें। हो सके तो जिस वृक्ष को आपने इस बार रोपा है उस पर भी रक्षा सूत्र बांधा जाय तो भविष्य उज्जवल होगा।
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