पंडित हर्षमणि बहुगुणा
महाभारत में अनेकों कथाएं हैं जो मानव को सन्मार्ग पर ले जाती है। मनुष्य जन्म बहुत पुण्यों से प्राप्त होता है, अतः इसे ऐसे ही नहीं गंवाना चाहिए। कुछ पुण्य कर आने वाले पुनर्जन्म को सुधारना आवश्यक है, धन्य करना श्रेयस्कर है। महाभारत के इस आख्यान में स्पष्ट उल्लेख है कि “आत्म हत्या का विचार भी पाप है ” ।
प्राचीन काल में काश्यप नामक एक तपस्वी व्यक्ति था। एक दिन किसी वैश्य ने अपने रथ के धक्के से उसे गिरा दिया। गिरने से वह बहुत दुःखी/ आहत हुआ और विचार करने लगा कि “निर्धन मनुष्य का जीवन व्यर्थ है, अतः मैं आत्महत्या करूंगा” । आत्महत्या का प्रयास करने वाले उस काश्यप नामक व्यक्ति के पास स्वयं इन्द्र गीदड़ का रूप धारण कर आए और कहने लगे – महाशय! मानव शरीर बड़ी कठिनाई से प्राप्त होता है, आप शास्त्रज्ञ भी हैं ऐसा दुर्लभ शरीर पाकर उसे इस तरह त्यागना नहीं चाहिए। जिसके पास दो हाथ हैं वह क्या नहीं कर सकता।
मैं हाथ पाने को लालायित हूं। हाथ होने से बढ़कर और क्या है? मेरे शरीर में कहीं कांटे लगे हैं तो कहीं खुजली होती है और अनेक काम हैं जो हाथ से ही हो सकते हैं। जो दुःख बेजुबान प्राणी सहन करते हैं वह आपको सहन नहीं करने पड़ते हैं।
भगवान की कृपा से आप गीदड़, चूहा, सांप, या किसी दूसरी योनि में उत्पन्न नहीं हुए। आप बहुत भाग्यशाली हैं, इतने से ही आपको सन्तुष्ट रहना चाहिए। आत्म हत्या करना बहुत बड़ा पाप है। इस समय मैं (गीदड़) श्रृगाल योनि में हूं जो बहुत नीच योनि है, फिर भी मैं आत्महत्या की बात नहीं सोचता हूं।
यह सब माया का चक्र है, जो नीच तर प्राणी हैं वह भी अपना शरीर त्याग करने की नहीं सोचते हैं । फिर आप ऐसा कु कृत्य क्यों करते हैं। मैं पूर्व जन्म में पण्डित था! उस समय थोथी तर्क विद्या पर मैं बहुत प्रेम करता था और जो व्यक्ति सद् विचार पर लगे रहते थे उन्हें भला-बुरा कह कर बढ़ चढ़ कर बातें करता रहता था, मूर्ख होने पर भी अपने को बड़ा पण्डित मानता था, अतः यह श्रृगाल की योनि मिली जो मेरे कुकर्म का परिणाम है। और अब चाहता हूं कि पुनः मनुष्य योनि मिल जाए। इतना सुनने के बाद काश्यप ने कहा — अरे! तुम तो बहुत कुशल व बुद्धि मान हो ।
ऐसा कहकर अपनी ज्ञान दृष्टि से देखा तो ज्ञात हुआ कि यह श्रृगाल तो साक्षात् इन्द्र ही हैं , तब शची पति की पूजा अर्चना की और उनकी आज्ञा पाकर अपने घर लौटे। इस कहानी से यह ज्ञान मिलता है कि मानव तन पाकर किसी भी परिस्थिति में आत्म घात नहीं करना चाहिए। जितना हो सके उतना परोपकार कर लोक हित में अपना जीवन अर्पित करना चाहिए।
आइए परमार्थ चिन्तन करके कुछ अपना व कुछ समाज का भला किया जाय। इसी में लोक कल्याण छिपा है। ध्यान रखना आवश्यक है कि कुसंग का ज्वर भयावह होता है , माया भी कुसंग की तरह ही है, कब तक हम केवल अपने लिए ही जीवित रहेंगे, कुछ समाज के लिए भी करना आवश्यक है। आइए आज समाज हित का चिन्तन करें।