जगत का कोई भी जीव ऐसा नहीं है, जो सुख व शांति-प्रिय न हो। हम सभी सर्वदा सुख-शांति की ही आकांक्षा करते हैं। मगर, शांति-शांति कह देने मात्र से या किसी का नाम शांति रख देने मात्र से शांति मिलने वाली नहीं है। शांति चाहिए तो अंतर्मन से प्रसन्नता व संतोष को धारण कर जीवन जीना होगा। शांति कोई बाहर से मिलने वाली वस्तु नहीं है, यह भीतर से उद्घाटित होने वाली मनोभावना है। जब मन और आत्मा में संतोष और प्रसन्नता होती है, तो इसका अनुभव खुद ही हो जाता है।
हिमशिखर धर्म डेस्क
अपने अनुभवों को जन्म देना पड़ता है, तब वो काम आते हैं। यह सुनकर थोड़ा अजीब लगता है, लेकिन इसे यूं समझा जा सकता है कि जीवन में कई घटनाओं से हमें कुछ सबक मिल जाते हैं, पर हम या तो उन्हें भूल जाते हैं, या याद रहने पर भी उपयोग नहीं करते। इसलिए जैसे किसी शिशु का जन्म होता है, ऐसे ही हमें अनुभव का जन्म कराना होगा और जब वे जन्म लेंगे, तब हमें समझ में आएगा इनका क्या उपयोग कर सकते हैं।
हमने कोई पुस्तक पढ़ी, किसी अच्छे व्यक्ति से मिले, कोई अच्छा विचार प्राप्त हुआ, कोई सदाचार देखने में आया यह सब अनुभव है। लेकिन, फिर उसे अपने भीतर पैदा करें, तब जाकर कुछ ठोस हाथ लग सकेगा। जैसे यदि कोई शांति प्राप्त करना चाहे तो क्या वह आसानी से मिल जाएगी। महाभारत में लिखा है- ‘यतेन्द्रियों नरो राजन् क्रोध लोभ निराकृत:। संतुष्ट: सत्यवादीन्य: स शान्तिमधि गच्छति।’
जो मनुष्य जितेंद्रीय, क्रोध-लोभ से शून्य, संतोषी और सत्यवादी होता है, उसी को शांति प्राप्त होती है। तो यदि शांति प्राप्त करना हो तो इंद्रियों को जीतना, क्रोध को नियंत्रित करना, लोभ से शून्य होना, संतोष की वृत्ति रखना और सत्य बोलना। इतने अनुभवों को अपने ही भीतर जन्म देना पड़ेगा। शांति कोई बाजार में मिलने वाली वस्तु नहीं है। इसे प्राप्त करने के लिए अपने आपको भीतर से तैयार करना पड़ता है।