सुप्रभातम् : श्राद्ध अंधविश्वास नहीं, आस्था का मामला

हिमशिखर धर्म डेस्क

Uttarakhand

हिन्दू संस्कृति के अनुसार श्राद्ध पक्ष का ना सिर्फ धार्मिक व आध्यामिक महत्व है, बल्कि इसे मनाए जाने के प्रमाणिक वैज्ञानिक तथ्य भी मौजूद हैं। सनातन धर्म परम्परा के अनुसार मृतक परिजनों की आत्मा की तृप्ति के लिए श्राद्ध कर्म किया जाता है। गरूड़ पुराण में लिखा गया है कि समयानुसार श्राद्ध करने से आयुष्य, संतान, यश कीर्ति और सुख प्राप्त होता है। श्राद्ध के बारे में सनातन धर्म परम्परा के साथ साथ वैज्ञानिक तथ्य भी हैं।

जन्म एवं मृत्यु का रहस्य अत्यंत गूढ़ है। वेदों में, दर्शन शास्त्रों में, उपनिषदों एवं पुराणों आदि में हमारे ऋषियों-मनीषियों ने इस विषय पर विस्तृत विचार किया है। श्रीमद्भागवत में भी स्पष्ट रूप से बताया गया है कि जन्म लेने वाले की मृत्यु और मृत्यु को प्राप्त होने वाले का जन्म निश्चित है। यह प्रकृति का नियम है। शरीर नष्ट होता है, मगर आत्मा कभी भी नष्ट नहीं होती है। वह पुनः जन्म लेती है और बार-बार जन्म लेती है। इस पुनः जन्म के आधार पर ही कर्मकांड में श्राद्धादि कर्म का विधान निर्मित किया गया है।

श्राद्ध महज कोई परम्परा या अंध प्रथा नहीं हैं बल्कि हर दृष्टि से अनुकूल एक तथा प्रासंगिक पर्व का ही प्रतिरूप है। श्राद्ध पक्ष का मजाक उड़ाने वालों को यह समझना चाहिए कि सनातन हिन्दू धर्म में वैज्ञानिक तथा प्राकृतिक आधार मौजूद हैं।

वहीं, आज विज्ञान और तकनीक के इस युग में श्राद्ध जैसी परंपरा को बनाए रखना भी एक चुनौती बनने लगा है। पढ़े-लिखे और तथाकथित आधुनिक लोग जब-जब श्राद्ध आते हैं, शोध में जुट जाते हैं कि यह सब है क्या? अपने दिवंगत पितृजन का स्मरण एक कर्मकांड ही नहीं, इससे भी अधिक भावनात्मक संबल का काम है।

हमारे बड़े-बूढ़े जो इस संसार से चले गए, उनकी स्मृति हमारी ताकत बन जाती है। जब किसी का श्राद्ध करते हैं तो इसका अर्थ होता है न जुबां से बोला जा रहा है, न आंखों से देखा जा रहा है। सिर्फ अनुभूति हो रही है। इस टफ टाइम में हमें उन राहों पर चलना है, जहां गिरना भी है, संभलना भी है।

इन तमाम चुनौतियों में पितृ हमारी ताकत बन जाते हैं। श्रीराम ने रावण को मारा, सीताजी को मुक्त करवाकर लाए, उस समय एक घटना घटी जिस पर तुलसीदासजी ने लिखा- ‘तेहि अवसर दशरथ तहं आए। तनय बिलोकि नयन जल छाए।’ उसी समय दशरथजी वहां आए और पुत्र को देखकर उनकी आंखें आंसुओं से भर गईं।

दोनों भाइयों ने उनकी वंदना की और पिता से आशीर्वाद प्राप्त किया। देखिए, दशरथजी की मृत्यु हो चुकी थी, फिर भी वे आशीर्वाद देने आए। बस, यही श्राद्ध का भाव है। पितृ हर सफलता-असफलता में सदैव हमारा साथ देते आए हैं। श्राद्ध के रूप में उनकी स्मृतियां अंधविश्वास नहीं, आस्था का मामला है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *