पंडित हर्षमणि बहुगुणा
आज से श्राद्ध पक्ष प्रारम्भ हो रहा है, जो लगातार सोलह दिन तक चलेगा। सामान्यतः तिथियों का क्रम लगातार है, कहीं कहीं कुतुब वेला व अपराह्न व्यापिनी तिथि में अन्तर होने से द्वितिया, तृतीया, चतुर्थी व पञ्चमी तिथि क्रमशः ग्यारह, बारह, तेरह व चौदह सितम्बर को तर्पण / श्राद्ध के लिए उपयुक्त हैं। शेष तिथियां अपने क्रम में है। यह विशिष्ठ पार्वण श्राद्ध करने वालोें के लिए चिन्तनीय है।
आज से अपने पितरों का ध्यान श्राद्ध आवश्यक है।
पिता धर्मः पिता स्वर्गः पिता हि परमं तपः।
पितरि प्रीतिमापन्ने प्रीयन्ते सर्वदेवताः॥
पद्मपुराण में कहा गया है कि पिता धर्म है, पिता स्वर्ग है और पिता ही सबसे श्रेष्ठ तप है। पिता के प्रसन्न हो जाने पर सम्पूर्ण देवता प्रसन्न हो जाते हैं।
_*पितरौ यस्य तृप्यन्ति सेवया च गुणेन च।
_*तस्य भागीरथी स्नानमहन्यहनि वर्तते॥
जिस पितृ-भक्त का पिता अपने पुत्र की पित्र सेवा से प्रसन्न हो जाता है उसको करोड़ों-बार भागीरथी में स्नान का फल प्राप्त हो जाता है।
_*सर्वतीर्थमयी माता सर्वदेवमयः पिता।
_*मातरं पितरं तस्मात् सर्वयत्नेन पूजयेत्॥
यदि पुत्र अपने जीवित माता-पिता को तीर्थ-देव समझे अर्थात:-माता को तीर्थ और पिता को तीर्थो में रमण करने वाला “परम-सत्यदेव” समझे तो उस पुत्र का “पुनर्पि जन्मं-पुनर्पि मरणं, पुनर्पि जननी जठरे शयनं” समाप्त हो जाता है।
_*मातरं पितरंश्चैव यस्तु कुर्यात् प्रदक्षिणम्।
_*प्रदक्षिणीकृता तेन सप्तदीपा वसुन्धरा॥
जो पुत्र अपने माता-पिता की सेवा में रहता है उसे जो फल और पुण्य पृथ्वी की परिक्रमा से प्राप्त होता है वही पुण्य अपने माता-पिता की परिक्रमा अथवा आज्ञा का पालन करने से प्राप्त हो जाता है।
_*तिलकं विप्र हस्तेन, मातृ हस्तेन भोजनम्।
_*पिण्डं पुत्र हस्तेन, न भविष्यति पुनः पुनः।।
ब्राह्मण के हाथ से तिलक, माता के हाथ से भोजन एवं पुत्र के हाथ से पिण्डदान का बार-बार सौभाग्य प्राप्त नहीं होता। इसलिए पितृपक्ष में अपने पूर्वजों का श्राद्ध/ तर्पण अवश्य करना चाहिए।
*देवताभ्य: पितृभ्यश्च महायोगेभ्य एव च।
*नम: स्वधायै स्वहायै नित्यमेव नमोनम:।।