हिंदी दिवस पर विशेष: हिन्दी लिखने-बोलने के साथ सीखिए तमीज और सलीका

पंडित हर्षमणि बहुगुणा

Uttarakhand

आज देश भर में हिन्दी दिवस मनाया गया। हमने आज हिन्दी बोलने, सीखने या हिन्दी की विशेषता पर अवश्य बहुत बड़े बड़े वक्तव्य दिए होंगे और कल उसे भूल जाएंगे। परन्तु कैसे सदैव हिन्दी की उन्नति के विषय में प्रयास किया जा सकता है यह विचारणीय है। ठीक उसी तरह कि हम गाय माता की सेवा करना चाहते हैं पर घर में एक गाय नहीं रख सकते हैं और तो और जब हमने गाय को निराश्रित कर उस जगह-जगह भटकने के लिए मजबूर कर दिया और फिर थूक के आंसू लगाकर लम्बे चौड़े भाषण दे रहे हैं और सरकार से यह गुहार करते हैं कि आवारा गोवंश की कुछ व्यवस्था करें तो हमारा चिन्तन कितना गिर जाता है। आजकल यह कई बार देखा जा रहा है कि बेसहारा गायों के लिए आवारा शब्द का प्रयोग किया जा रहा है। कहना यह चाहिए कि जिस गौमाता को हमने निराश्रित बना दिया है उन बेसहारा गोवंश को कुछ आश्रय की आवश्यकता है, परन्तु हम अपनी ग़लती को स्वीकार करने के लिए तैयार ही नहीं है। कुछ ऐसा ही हिन्दी भाषा के प्रति हो रहा है। और अंग्रेजी के प्रति हमारी आस्था नहीं अपितु एक कुंठा है, भारतीय संस्कृत भाषा विश्व की महानतम भाषा है, हमारे वेद, उपनिषद, पुराण, स्मृतियां व अन्य धर्म शास्त्र सभी संस्कृत भाषा में लिखित है, विश्व विज्ञान के मूल स्रोत हमारी संस्कृत भाषा है और हिन्दी की जननी संस्कृत ही है, अतः आज ही नहीं हर दिन हिन्दी दिवस होना चाहिए।

हिंदी साहित्य के प्रचार एवं प्रसार के लिए अनेकों साहित्यकारों को श्रेय है। कुछ हद तक यह बात सही भी है कि हिंदी एक समृद्ध भाषा के रूप में जिस तरह पली-बढ़ी है, उसमें साहित्यकारों का बड़ा योगदान रहा है, जिसके लिए समय-समय पर उन्हें विभिन्न पुरुस्कारों से सम्मानित भी किया जाता रहा है, तथा किया जाता रहेगा ।

जहाँ तक साहित्यिक मापदंडों का सवाल है, इसमें कोई शक नहीं कि भाव-रस -छंद – अलंकार – शब्द सौष्ठव आदि के मामले में बहुत से फ़िल्मी गीत ऐसे हैं, जो किसी भी साहित्यकार की कसौटी पर खरे उतरेंगे, बहुत से संवाद ऐसे हैं जो किसी भी प्रतिष्ठित कथाकार को आत्मसमीक्षा पर मजबूर कर देंगे। किन्तु इन्हें हिंदी साहित्य में स्थान नहीं मिलता है।

हिंदी अखबारों की भी यही स्थिति है। हिंदी को आम जन तक पहुंचाने में इनका जो योगदान है वह भी लगभग उपेक्षित ही रहता है। हमें कभी कभी ऐसा भी लगता है कि हिन्दी अखबारों में कई बार ऐसे बढ़िया सम्पादकीय आते हैं जो साहित्य की हर परीक्षा में खरे उतरते हैं, किन्तु कभी उन्हें भुला दिया जाता है।

आम तौर पर लोग शुद्ध हिंदी की बात करते हैं। लेकिन अपने अनुभव के आधार पर यह कहा जा सकता है कि जिसे हम शुद्ध हिंदी कहते हैं वह देश के किसी भी गाँव – मोहल्ले -शहर या घर में नहीं बोली जाती। सिर्फ हिंदी ही नहीं, संसार की हर भाषा की लगभग यही स्थिति होती है, बोलचाल की भाषा में स्थानीयता का पुट आ ही जाता है। जिसे शुद्ध भाषा कहा जाता है वह सिर्फ गिने चुने लोगों द्वारा गिनी चुनी जगह एवं कभी – कभार ही प्रयोग की जाती है। यह भी एक तथ्य है। जिन भाषाओं ने अपने आपको शुद्धता एवं कुलीनता की सीमाओं में बाँधा, वे संपन्न-समृद्ध – प्रभावी होने के बावजूद समाप्त हो गयी या फिर अपने ही पिंजरों में कैद होकर कुछ ख़ास लोगों की किसी खास समय पर बोली जाने वाली भाषा बन गयी, जैसे-संस्कृत और लैटिन भाषा।

हमें ऐसा लगता है कि जब भी हिंदी की चर्चा हो तो उसमें साहित्यकारों के साथ-साथ हिंदी अखबारों को भी उचित सम्मान दिया जाना चाहिए ताकि हिन्दी भाषा को समृद्धशाली बनाया जा सके।

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