काका हरिओम्
विश्वानंद से स्वामी हरिॐ बनने की कहानी पढ़ने-सुनने में भले ही सामान्य लगे, लेकिन वास्तव में है असाधारण और अलौकिक। माता-पिता और परिवार के लोगों ने कई बार संसार में उलझाने की कोशिश की। बार-बार नुकसान करने के बाद भी नए-नए काम खोलकर दिए, कभी राशन की दुकान, कभी चक्की तो कभी और कुछ। लेकिन विश्वानंद को कोई गुलामी स्वीकार नहीं थी। उन्हें पता था कि एक बार अगर फंदे को स्वीकार कर लिया, तो फिर छूटना मुश्किल है। कई बार रिश्तों में बांधने की कोशिश की, लेकिन वह परिवार द्वारा पसंद की गई लड़की को बहन बना लेते, उससे राखी बंधवा लेते। अक्सर ऐसा होता है, माता-पिता अपनी संतान के स्वभाव को समझने की भूल कर बैठते हैं। उन्हें पता ही नहीं चल पाता कि उनके यहां जो आत्मा आई है, उसका मकसद क्या है।
श्रीकृष्ण ऐसी आत्मा को ही योगभ्रष्ट की श्रेणी में रखते हैं और उसको जानने-समझने का प्रयास करते हैं। विश्वानंद के नाम से इस संसार में प्रकट हुए शिशु के आने के पीछे उद्देश्य था, स्वयं मुक्त होना और समूची मानवता को परम शांति का व्यावहारिक ज्ञान देना।
विश्वानंद को स्वामी रामतीर्थ जी महाराज के शिष्य गोविन्दानंद जी महाराज का सान्निध्य विद्यार्थी जीवन में ही मिल गया था। कहते हैं कि जितनी चाह शिष्य को सद्गुरु की होती है, उतनी ही व्याकुलता गुरु को होती है कि उसे ऐसा शिष्य मिले, जिसमें वह अपने सर्वस्व को उड़ेल सके। यह घटना कुछ ऐसी ही थी। विश्वानंद के मन में अपने आराध्य श्रीकृष्ण और सद्गुरु की छत्रछाया में सदैव बने रहने की चाह भड़क उठी।
इस चाह ने उन्हें जहां श्रीकृष्ण का साक्षात्कार कराया, जिसे वह उस समय पहचान न सके, वहीं आत्मानुभव से गुजरने के पूर्व सद्गुरु ने राममिशन के लिए सर्वस्व समर्पित करने तथा महान लक्ष्य को प्राप्त करने का बीज डाल दिया। ‘कार्य कठिन है, नहीं कर पाऊंगा’, विश्वानंद के इस भाव को सुनकर गुरुदेव ने अहंकार पर चोट की, ‘‘तू कौन होता है करने वाला, बस निमित्त बन। परमात्मा तुझे किसी विशेष कार्य में अपना यंत्र बनाना चाहता है, बन जा। बाकी सब वह स्वयं देख लेंगे। उनका काम है, वह स्वयं संभालेंगे।’’
इस तरह विश्वानंद बन गया श्रीराम का अमोघ बाण और चल दिया ‘‘राम मिशन’’ को पूरा करने।
स्वामी राम के व्यावहारिक वेदांत को ‘ॐ’ के रूप में विश्वानंद ने आत्मसात् किया और बन गया विश्वानंद से स्वामी हरिॐ। रामप्रेमियों ने बताया कि जब वह प्रवचन करते, तो उनके प्रत्येक वाक्य के बाद ‘ॐ’ की पवित्र ध्वनि होती। वह श्रोताओं को सुनाई तो देती, लेकिन उसका उच्चारण स्वामी जी को करते किसी ने नहीं देखा-वह मानो असीम आकाश से ऐसे उतरती थी, जैसे सूर्य से यह नाद अनायास गूंजता है। इसीलिए इन्हें पूरा समाज स्वामी हरिॐ इस नाम से पुकारने लगा।
रामप्रेमी ऐसी कई घटनाओं का जिक्र अकसर करते हैं, जो उनके सम्पर्क में आए, इन्हें चमत्कारों की श्रेणी में रखा जा सकता है, लेकिन स्वामी राम की पावन परंपरा ने इन्हें आत्म सिद्धि में बाधक माना है, इसलिए इन्हें महिमा मंडित नहीं किया जाता है। योगदर्शन में स्पष्ट किया गया है कि ऐसे महापुरुष जिस स्थान पर निवास करते हैं, वहां के वातावरण में भी असंभव को संभव करने की शक्ति आ जाती है। राजपुर आश्रम में इस अनुभव से कई साधक, भक्त और रामप्रेमी गुजरे हैं।