श्रीदेव सुमन ने टिहरी राजशाही को दिन में दिखाए थे तारे

स्वाधीनता आन्दोलन के दिनों में 2 अगस्त 1944 के दैनिक हिन्दुस्तान का वह सम्पादकीय आलेख था जिसमें सम्पादक ने लिखा था कि,:-श्रीदेव सुमन का पवित्र बलिदान भारतीय इतिहास में अनेक दृष्टियों से महत्वपूर्ण और उल्लेख योग्य है। श्रीदेव सुमन का बलिदान मगर, इससे अधिक उच्च सिद्धान्त के लिए हुआ है। टिहरी राज्य में उत्तरदायी शासन की स्थापना के लिए आपने बलिदान दिया है। टिहरी के शासन पर पड़ा काला पर्दा इससे उठ गया है। हमारा विश्वास है कि टिहरी की जनता की स्वतंत्रता की लड़ाई इस बलिदान के बाद और जोर पकड़ेगी और टिहरी के लोग उनके जीवनकाल में अपने लोकनेता का जैसे अनुकरण करते थे, वैसे ही भविष्य में अनुप्राणित होंगे।”

Uttarakhand

पंडित हर्षमणि बहुगुणा

‘आज जिस महानायक, महान विभूति की शहादत ऐतिहासिक आमरण अनशन के बाद टिहरी रियासत से अत्याचार को समाप्त करने के उद्देश्य से अपने शरीर का बलिदान दिया उनको याद करने का दिन ‘सुमन दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। ऐसे महापुरुष को भावभीनी विनम्र श्रद्धांजलि सादर समर्पित।’

“25 मई सन् 1916 को चम्बा के निकट जौल गांव (बमुण्ड पट्टी) टिहरी गढ़वाल (उत्तराखंड) में पं० हरि दत्त बडोनी जी के यहां अवतरित श्री श्रीदेव सुमन जो बहुमुखी प्रतिभा के धनी युवक थे। जिन्होंने चौदह वर्ष की अवस्था में सन् 1930 में नमक सत्याग्रह में भाग लिया। सन् 1936 में दिल्ली में “गढ़ देश सेवा संघ ” की स्थापना हुई व उसके सक्रिय कार्यकर्ता बने। सन् 1939 में देहरादून में ‘टिहरी राज्य प्रजा मण्डल’ की स्थापना के बाद सक्रिय कार्यकर्ता, जबकि टिहरी नरेश महाराज नरेंद्र शाह अपनी रियासत को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए टिहरी गढ़वाल की जनता को उच्च शिक्षा ग्रहण करने से पहले ही बच्चों को किसी न किसी रूप में नौकरी दी।

श्रीदेव सुमन को भी अच्छी नौकरी का प्रलोभन दिया। पर उनका मन तो टिहरी गढ़वाल की जनता के दु:खों को मिटाने का था। एक तम्मना थी, एक लालसा थी, इसी के लिए दमन कारी शासकीय कर्मचारियों के षड्यंत्रों में अपना जीवन बलिदान कर दिया, पर देश को बहुत कुछ बता दिया और इसी लिए राज्य के शहजादों ने अथाह जुल्म किए, पर मातृभूमि का यह सपूत डग से मग नहीं हुआ। 1942 अप्रैल में गिरफ्तार कर हतोत्साहित करने के लिए कई बार गिरफ्तार कर रिहा भी किया गया। अन्तिम जेल यात्रा 30 दिसंबर सन् 1943 को हुई। पाशविक अत्याचार किए गए, पैंतीस सेर की बेड़ियों से पैर जकड़ दिए, तीन मई सन् 1944 को आमरण अनशन प्रारम्भ किया जो 84 दिन तक चला व 25 जुलाई की सायं चार बजे आपका शरीर शान्त हो गया या यातना देकर शान्त होने के लिए विवश कर दिया।

मरने के बाद भी उनके शरीर को बोरे में बंद कर उफनती भिलंगना में बहा दिया, घर वालों को न सूचना दी गई और न पार्थिव शरीर ही दिया गया। आज जन सेवक अपने हित के लिए सब कुछ करते हैं, पर जनता का हित देखने की फुर्सत ही नहीं है। ऐसी विभूति/ महानायक को उनकी शहादत पर भावभीनी श्रद्धांजलि के साथ कोटि-कोटि नमन करते हुए अपने श्रद्धासुमन सादर समर्पित करता हूं। और ईश्वर से प्रार्थना करता हूं कि ऐसी विभूति से हमें कुछ न कुछ प्रेरणा अवश्य मिले। शान्ति प्रार्थना के साथ -ॐ शान्ति ॐ शान्ति ॐ शान्ति ॐ ।

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