श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण: राजमन्त्रियों के गुण और नीति का वर्णन

हिमशिखर धर्म डेस्क

Uttarakhand

इक्ष्वाकुवंशी वीर महामना महाराज दशरथ के मन्त्रिजनोचित गुणों से सम्पन्न आठ मन्त्री थे, जो मन्त्र के तत्त्व को जानने वाले और बाहरी चेष्टा देखकर ही मन के भाव को समझ लेने वाले थे। वे सदा ही राजा के प्रिय एवं हित में लगे रहते थे। इसीलिये उनका यश बहुत फैला हुआ था। वे सभी शुद्ध आचार-विचार से युक्त थे और राजकीय कार्यों में निरन्तर संलग्न रहते थे।

उनके नाम इस प्रकार हैं–धृष्टि, जयन्त, विजय, सुराष्ट्र, राष्ट्रवर्धन, अकोप, धर्मपाल और आठवें सुमन्त्र, जो अर्थशास्त्र के ज्ञाता थे। ऋषियों में श्रेष्ठतम वसिष्ठ और वामदेव–ये दो महर्षि राजा के माननीय ऋत्विज् (पुरोहित) थे। इनके सिवा सुयज्ञ, जाबालि, काश्यप, गौतम, दीर्घायु मार्कण्डेय और विप्रवर कात्यायन भी महाराजके मन्त्री थे।

ब्रह्मर्षियों के साथ राजा के पूर्वपरम्परागत ऋत्विज् भी सदा मन्त्री का कार्य करते थे। वे सब-के-सब विद्वान् होने के कारण विनयशील, सलज्ज, कार्यकुशल, जितेन्द्रिय, श्रीसम्पन्न, महात्मा, शस्त्रविद्या के ज्ञाता, सुदृढ़ पराक्रमी, यशस्वी, समस्त राजकार्यों में सावधान, राजा की आज्ञा के अनुसार कार्य करने वाले, तेजस्वी, क्षमाशील, कीर्तिमान् तथा मुसकराकर बात करने वाले थे। वे कभी काम, क्रोध या स्वार्थ के वशीभूत होकर झूठ नहीं बोलते थे।

अपने या शत्रुपक्ष के राजाओं की कोई भी बात उनसे छिपी नहीं रहती थी। दूसरे राजा क्या करते हैं, क्या कर चुके हैं और क्या करना चाहते हैं ये सभी बातें गुप्तचरों द्वारा उन्हें मालूम रहती थीं। वे सभी व्यवहार कुशल थे। उनके सौहार्द की अनेक अवसरों पर परीक्षा ली जा चुकी थी। वे मौका पड़ने पर अपने पुत्र को भी उचित दण्ड देने में भी नहीं हिचकते थे।

कोष संचय तथा चतुरंगिणी सेना के संग्रह में सदा लगे रहते थे। शत्रु ने भी यदि अपराध न किया हो तो वे उसकी हिंसा नहीं करते थे। उन सबमें सदा शौर्य एवं उत्साह भरा रहता था। वे राजनीति के अनुसार कार्य करते तथा अपने राज्य के भीतर रहने वाले सत्पुरुषों की सदा रक्षा करते थे।

ब्राह्मणों और क्षत्रियों को कष्ट न पहुँचाकर न्यायोचित धन से राजा का खजाना भरते थे। वे अपराधी पुरुष के बलाबल को देखकर उसके प्रति तीक्ष्ण अथवा मृदु दण्ड का प्रयोग करते थे। उन सबके भाव शुद्ध और विचार एक थे। उनकी जानकारी में अयोध्यापुरी अथवा कोसलराज्य के भीतर कहीं एक भी मनुष्य ऐसा नहीं था, जो मिथ्यावादी, दुष्ट और परस्त्री लम्पट हो। सम्पूर्ण राष्ट्र और नगर में पूर्ण शान्ति छायी रहती थी।

उन मन्त्रियों के वस्त्र और वेष स्वच्छ एवं सुन्दर होते थे। वे उत्तम व्रत का पालन करने वाले तथा राजा के हितैषी थे। नीतिरूपी नेत्रों से देखते हुए सदा सजग रहते थे। अपने गुणों के कारण वे सभी मन्त्री गुरुतुल्य समादरणीय राजा के अनुग्रहपात्र थे।

अपने पराक्रमों के कारण उनकी सर्वत्र ख्याति थी। विदेशों में भी सब लोग उन्हें जानते थे। वे सभी बातों में बुद्धि द्वारा भलीभाँति विचार करके किसी निश्चय पर पहुँचते थे। समस्त देशों और कालों में वे गुणवान् ही सिद्ध होते थे, गुणहीन नहीं। सन्धि और विग्रह के उपयोग और अवसर का उन्हें अच्छी तरह ज्ञान था। वे स्वभाव से ही सम्पत्तिशाली (दैवी सम्पत्ति से युक्त थे। उनमें राजकीयमन्त्रणा को गुप्त रखने की पूर्ण शक्ति थी। वे सूक्ष्म विषय का विचार करने में कुशल थे। नीति शास्त्र में उनकी विशेष जानकारी थी तथा वे सदा ही प्रिय लगने वाली बात बोलते थे।

ऐसे गुणवान् मन्त्रियों के साथ रहकर निष्पाप राजा दशरथ उस भूमण्डल का शासन करते थे। वे गुप्तचरों के द्वारा अपने और शत्रु-राज्य के वृत्तान्तों पर दृष्टि रखते थे, प्रजा का धर्म पूर्वक पालन करते थे तथा प्रजापालन करते हुए अधर्म से दूर ही रहते थे। उनकी तीनों लोकों में प्रसिद्धि थी। वे उदार और सत्यप्रतिज्ञ थे। पुरुषसिंह राजा दशरथ अयोध्या में ही रहकर इस पृथ्वी का शासन करते थे। उन्हें कभी अपने से बड़ा अथवा अपने समान भी कोई शत्रु नहीं मिला। उनके मित्रोंकी संख्या बहुत थी। सभी सामन्त उनके चरणों में मस्तक झुकाते थे। उनके प्रताप से राज्य के सारे कण्टक (शत्रु एवं चोर आदि) नष्ट हो गये थे।

जैसे देवराज इन्द्र स्वर्ग में रहकर तीनों लोकों का पालन करते हैं, उसी प्रकार राजा दशरथ अयोध्या में रहकर सम्पूर्ण जगत् का शासन करते थे। उनके मन्त्री मन्त्रणा को गुप्त रखने तथा राज्य के हित-साधन में संलग्न रहते थे। वे राजा के प्रति अनुरक्त, कार्यकुशल और शक्तिशाली थे। जैसे सूर्य अपनी तेजोमयी किरणों के साथ उदित होकर प्रकाशित होते हैं, उसी प्रकार राजा दशरथ उन तेजस्वी मन्त्रियों से घिरे रहकर बड़ी शोभा पाते थे।
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदि काव्य के बालकाण्ड में सातवाँ सर्ग पूरा हुआ॥७॥

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