सुपर एक्सक्लूसिव : जंगली बोले, ‘कोरोना’ समाज के लिए ‘सबक’, साइलेंट परमाणु बम के समान…चिंता नहीं चिंतन की जरूरत…

  • आज पूरी मानवजाति एक बड़ी एवं भयावह कोरोना वायरस महामारी के कहर से जूझ रही है। इस संकट के समय हम देख रहे हैं कि जगह-जगह आक्सीजन के नए-नए प्लांट लगाए जा रहे हैं। लेकिन अनादिकाल से हमारी आक्सीजन की पूर्ति हमारी प्रकृति एवं वृक्ष करते रहे हैं। प्रकृति का लगातार हो रहा दोहन, वनों का छीजन और पर्यावरण की उपेक्षा ही कोरोना जैसी महामारी का बड़ा कारण है। वर्तमान में हमने जंगल को नष्ट कर दिए और भौतिकवादी जीवन ने इस वातावरण को धूल, धुएं के प्रदूषण से भर दिया है जिससे हमारी सांसे अवरूद्ध हो गयीं और भविष्य खतरे में है। प्रकृति पर मंडरा रहे खतरे को लेकर आज हम उत्तराखण्ड वन विभाग के ब्रांड एंबेसडर जगत सिंह चौधरी का आंख खोल देने वाला लेख प्रस्तुत कर रहे हैं। बताते चलें कि उत्तराखण्ड के रुद्रप्रयाग जिले के चरकोट में खुद के बूते मिश्रित वन विकसित करने वाले जगत सिंह चौधरी ‘जंगली’ उत्तराखण्ड वन विभाग के ब्रांड एंबेसडर हैं। इसके साथ ही जंगली भारत सरकार के वन एवं पर्यावरण मंत्रालय की राष्ट्रीय वनीकरण और पर्यावरण विकास बोर्ड में एक्सपर्ट मेम्बर भी हैं।जंगली के मिश्रित वन के माडल को देश-दुनिया में सराहा गया है। इंग्लैंड की रेमिडी कंपनी के नुमाइंदों ने चरकोट आकर इस जंगल का जायजा लेकर विश्वभर में इसी तरह के मिश्रित वनों के माडल विकसित करने की जरूरत बताई थी।

हिमशिखर पर्यावरण डेस्क

Uttarakhand

कोरोना की दूसरी लहर ने मानव को आक्सीजन की कीमत को समझा दिया है। मानव ने प्राकृतिक आक्सीजन की तरफ बहुत गहराई से कभी ध्यान नहीं दिया। हमेशा प्राकृतिक आक्सीजन के स्रोतों को बिगाड़ा है। मनुष्य ने अपनी सुख-सुविधाओं के लिए प्रकृति को बहुत नुकसान पहुंचाया है। जिसका नतीजा यह हुआ है कि वायु मंडल में आक्सीजन की कमी होने लगी। जब वायुमंडल दूषित होता गया तो उसके दुष्परिणाम भी हमें आज देखने को मिल रहे हैं। आज हवा, पानी और भोजन दूषित हो गया है। प्राकृतिक प्राणवायु दूषित हो चुकी है। जिस कारण पंचभौतिक तत्वों से बना हमारा शरीर आक्सीजन के लेवल से दूर होता जा रहा है। नतीजतन हमें आज कृत्रिम आक्सीजन की तरफ भागने की जरूरत पड़ गई है। एक समय बाद हम इस महामारी नियंत्रण पा लेंगेे, लेकिन आगे फिर कोई बीमारी आ जाएगी, क्योंकि प्रकृति में असंतुलन हो चुका है। सोचो! हम कहां आ गए हैं, अपने स्वार्थ के लिए स्वयं को ही संकट में डाल दिया है।

कोरोना साइलेंट परमाणु बम
कोरोना साइलेंट वायरस है, जो एक साइलेंट परमाणु बम की तरह है। जो बिना किसी गड़गड़ाहट के त्रस्त कर रहा है। आधुनिकता की अंधी दौड़ में प्रकृति को रौंदकर आगे बढ़ने के चक्कर में प्रकृति में बढ़ते कार्बन उत्सर्जन की ओर आंखें मूंद दी। सब जानते हैं कि गंदगी में गंदगी ही पैदा होती है। साफ-सफाई में वायरस नहीं आता है। जहां गंदगी ज्यादा होती है, वहां वायरस ज्यादा आते हैं। गंदगी वायरसों को बहुत पसंद है। ऐसे में वातावरण दूषित होने का फायदा उठाकर वायरस तेजी से अपने पांव पसारकर लोगों को अपनी चपेट में ले रहा है। हालांकि, कोविड-19 से आकस्मिक मौतें होना बहुत ही दुःखदायी हैं। आज संकट के दौर में हमें प्रकृति पर मंडरा रहे खतरों से निपटने के लिए चिंतन करने की जरूरत है।

बुजुर्गों के पीपल और बड़ के पेड़ों को लगाने का यह है रहस्य
हमारे बुजुर्गों ने पथिक रास्तों में पीपल और बड़ के पेड़ लगाए थे। बचपन के दिनों में हमारे दिमाग में आता था कि यह पेड़ छाया के लिए लगाए गए हैं। लेकिन समझ आने पर पता चला कि, इसके पीछे की सच्चाई यह है कि जब पैदल चलने से हमारे शरीर का आक्सीजन लेवल कम हो जाता है। तब सही मायने में इन पेड़ों के नीचे बैठकर पर्याप्त शुद्ध आक्सीजन की प्राण वायु मिलती है। ऐसे में शरीर में चुस्ती-फुर्ती मिलने के बाद आगे का रास्ता तय करते थे।

बेमौसमी भोजन हानिकारक
आज हमने परम्परागत चीजों का नकार दिया है। आज भी जो बुजुर्ग गांव में 100 साल के हैं, वे कहते हैं कि उनकी उम्र का राज पारंपरिक खान-पान है। हमारे बुजुर्ग मौसमी चीजों को खाया करते थे। लेकिन आज हम ठीक उसके विपरीत बेमौसमी चीजों को खा रहे हैं। सभी जानते हैं कि पंच भौतिक तत्वों से मिलकर बना हमारा शरीर मौसमी चीजों के लिए बना है। बेमौसमी चीजें खाकर हम अपने स्वास्थ्य को बिगाड़कर अपने पांव पर कुल्हाड़ी मार रहे हैं।

रासायनिक खाद खतरनाक
प्राचीन काल से ही गाय से हमारा पुराना नाता रहा है। यह सिर्फ धार्मिक ही नहीं बल्कि वैज्ञानिक भी है। दरअसल, गाय के गोमूत्र और गोबर में टिकाउ खेती का फार्मूला छिपा है। इनसे न सिर्फ फसलों का अच्छा पोषण मिलता है बल्कि बीमारियां भी कम आती हैं। लेकिन आज स्वार्थवश खेतों में रसायन डालकर अनाज को जहरीला बना दिया गया है। इससे हमारे खेतों की उर्वरता खत्म हो रही है साथ ही मानव जहरीला भोजन खाकर बीमार पड़ रहा है। आज के समय में अधिकांश बीमारियों की जड़ रासायनिक भोजन ही है।

प्रकृति का ऋण चुकाने के लिए आना होगा आगे
आज हम वायुमंडल से फ्री में आक्सीजन ले रहे हैं। जिसका हमने प्रकृति को कभी मूल्य नहीं चुकाया है। जिस तरह से हम पानी और भोजन का मूल्य चुकाते हैं। ठीक इसी तरह से हमें सारे जीवन में ली गई प्राण वायु का मूल्य चुकाने के लिए आगे आना होगा। प्राकृतिक प्राणवायु को बचाने के लिए हर मानव को अपने जीवन में 20 पेड़ लगाकर बड़े करने का संकल्प लेना होगा। यदि समय रहते हम नहीं चेते तो भविष्य में दूसरी बड़ी बीमारी के लिए तैयार रहना होगा।

भारत में लापरवाही के कारण कोरोना ने लिया रौद्र रूप
भारत में महामारी का रौद्र रूप लेने की पीछे की सच्चाई यह है कि हम लोग कोरोना के प्रति लापरवाह रहे हैं। हमने इसे गहराई से नहीं लिया है। पिछले लाकडाउन के समय हमने अपने घरों में रहकर कोरोना को मात दी। लेकिन लाकडाउन के बाद भूल गए कि कोरोना अभी पूरी तरह से गया नहीं है। नियमों का पालन किया जाता तो शायद आज देशभर में स्थिति इतनी भयावह नहीं होती।

खाद्य और अखाद्य का फर्क भूला दिया
आज खाद्य और अखाद्य का अंतर भूला दिया गया है। क्या खा रहे हैं, इससे कोई मतलब नहीं है। जीभ चटोरी, मन बावरा और भूख व तृष्ण खत्म होने का नाम नहीं ले रही है। भोजन तो शरीर रूपी मंदिर का पोषण करता है। मुंह को कूड़ादान बना दिया है। खासतौर पर फास्ट फूड का तेजी से बढ़ता कल्चर खतरनाक है। भारत छह ऋतुओं की जलवायु का देश है। ऐसे में हम खानपान में दूसरे देश की संस्कृति को अंगीकृत नहीं कर सकते हैं। —(जारी विनोद चमोली)

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