हिमशिखर धर्म डेस्क
हनुमान जी की भूख इतनी प्रबल है कि जब वे अशोक वाटिका में श्री सीता जी के पास गए तब उन्होंने यह नही कहा कि मुझे भूख लगी है, अपितु कहा कि –
“सुनहु मातु मोहि अतिसय भूखा।”
अति भूख भी नहीं, अपितु अतिसय भूख शब्द का प्रयोग किया । माँ ने पूछा – यह भूख के साथ अतिशय का क्या अर्थ? तो हनुमान जी ने कहा माँ! सत्य तो यह है कि मैं जन्मजात भूखा हूँ।
इस संदर्भ में बडी प्रसिद्ध कथा है, जब हनुमान जी का जन्म हुआ तो लाल लाल सूर्य दिखाई पडा और हनुमान जी ने उसको फल समझकर खा लिया। प्रश्न यह है कि क्या सचमुच हनुमानजी इतने नासमझ थे कि उन्होंने सूर्य को फल समझ लिया? और जिस पर्वत पर हनुमान जी थे क्या उसके आसपास फलों के वृक्ष नहीं थे?
यद्यपि पर्वत पर तो अनेकानेक फल युक्त वृक्ष थे और यदि उनका फल तोड़ना चाहते तो यह बात ठीक होती। पर इसके स्थान प्रेस सूर्य रूपी फल को खाने के लिए उन्हें कितनी लम्बी छलाँग क्यों लगाना पड़ी ? यदि विचार करके देखें तो हमें स्पष्ट प्रतीत होगा कि जिसने एक छलाँग लगाकर सूर्य को मुँह में धारण कर लिया हो वे हनुमान जी कितने विलक्षण हैं और उनकी भूख कोई साधारण नहीं है।
इतना ही नहीं फल खाने पर इंद्र ने वज्र से उन पर प्रहार भी कर दिया , तथा हनुमान जी को मूर्छित होना पडा। पर जब बाद में पवन देवता के द्वारा प्राण – वायु की गति रुकने लगी तो फिर सारे देवताओं ने क्षमा- याचना की तथा हनुमान जी को वरदान दिये। हनुमानजी द्वारा इस प्रकार कार्य करने का तात्पर्य क्या है?इस पर थोड़ा विचार कर लिया जाय।
वस्तुत: श्री हनुमानजी ने किसी भ्रम के कारण सूर्य को फल नहीं समझा था।’ फल’ के बारे में हम पढ़ते ही हैं अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष से चार फल माने जाते हैं। हनुमानजी यदि चाहते तो उन्हें ‘अर्थ ‘का फल उन्हें सरलता से प्राप्त हो जाता। काम तथा धर्म का फल भी वे प्राप्त कर लेते। परन्तु पास वाले फलों की ओर हनुमान जी मे हाथ नहीं बढ़ाया, इसका अर्थ है कि उन्हे ज्ञान की भूख है, प्रकाश की भूख है। संसार की वस्तुओं की भूख उनके जीवन में नहीं है, वे तो केवल चरम फल के लिए छलाँग लगाते हैं।
श्री हनुमानजी सचमुच छलाँग लगाना जानते हैं। उनकी प्रत्येक छलाँग अनोखी है। जब उनकी पहली छलाँग तो सूर्य तक पहुंच गए। दूसरी छलाँग लंका की दिशा में लगाई तो श्री सीताजी तक पहुंच गये। तीसरी छलॉंग में लक्ष्मण जी के लिए दवा लेने द्रोणाचल पर्वत पर पहुंच गए और चौथी छलॉंग लगी तो लंका से सीधे अयोध्या पहुंच गये।
हमारे लिए तो सीढी से चढ़ना ही उपादेय है । व्यक्ति यदि यह सोचे कि मुझे अर्थ, धर्म तथा काम का फल नहीं चाहिए, मुझे तो केवल मोक्ष चाहिये यह उचित नहीं हैं। साधारण व्यक्ति श्री हनुमान जी का अनुसरण करके छलाँग तो लगा दे, पर अगर छलॉंग सही न लगी तो वह नीचे भी गिर जाएगा।
इसलिये हनुमान जी की भूख मानें,” सुमति- छुधा” अर्थात् ज्ञान तथा प्रकाश की भूख।
हनुमान जीने सूर्य को मुख में धारण कर लिया इसका भी अर्थ दूसरा था।हमारे पुराणों में कथा आती है कि ठीक उसी समय सूर्य ग्रहण लगने वाला था । समय पाकर ग्रहण लगता है और सूर्य का प्रकाश छिप जाता है ।इसका अर्थ है कि सूर्य के साथ भी राहु की समस्या है। यह राह मात्सर्य तथा ईर्ष्या वृत्ति का परिचायक है ।
वर्णन आता है कि राहु का रंग है काला और सूर्य का उज्वल। राहु यह चेष्टा करता है कि भले ही हम ज्ञान (सूर्य) को सदा के लिए न मिटा सकें पर थोड़े समय के लिए इसे ग्रस कर अंधेरा तो अवश्य फैला सकते हैं।
हनुमान जी के जन्म के समय जब राहु सूर्य की ओर बढ रहा था उसी समय हनुमान जी छलाँग लगाकर पहुँचे और उन्होंने सूर्य को मुँह मे धारण कर लिया। लोगों को लगा कि उन्होंने सूर्य को खा लिया पर विवेकी व्यक्ति समझ गये कि खा नहीं लिया अपितु राहु के द्वारा खाए जाने से सूर्य को बचा लिया, क्योंकि हनुमान जी अगर मुख में न लेते तो राहु मुख में ले लेता।
श्री हनुमान जी ज्ञान का फल मुख में धारण करते हैं , इसका सीधा सा तात्पर्य है कि जब वेदमंत्रों तथा श्लोकों का पाठ किया जाएगा तो मुख से ही तो किया जाएगा। इसलिये कहा जा सकता है कि मुख का जितना बढिया उपयोग करना श्री हनुमान जी जानते हैं, दूसरा भला क्या जानेगा।जिन्होंने जन्म लेते ही सूर्य को मुख मे धारण कर लिया।
जब दूसरी छलाँग लगाने लगे तो उस समय भगवान श्रीराम ने मुद्रिका दी और प्रभु – मुद्रिका लेते ही–
” प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहीं”
उसे मुख में धारण कर लेते है।इसका अभिप्राय क्या है कि सूर्य को भी मुख में धारण करते हैं और ‘ राम -नाम’ को भी मुख में धारण कर लेते है। तात्पर्य यह है कि हनुमान जी महाराज ज्ञान (सूर्य) और भक्ति (रामनाम अंकित मुद्रिका) दोनों को मुख मे धारण करते है। मुख का इससे अच्छा सदुपयोग और क्या हो सकता है।