धर्मशास्त्रों में शरीर को आत्मा का कारावास कहा गया है, शरीर त्याग के समय शरीर बंधनों से जकड़ी हुई आत्मा की दशा ‘सांप-छछूंदर’ जैसी होती है, क्योंकि शरीर का बंधन एवं मोह, आत्मा को उस शरीर की ओर आकर्षित करता है और जब शरीर उस आत्मा को संभालने के लायक नहीं रहता तो व्यक्ति की आत्मा शरीर का कारावास तोड़कर बाहर निकलती है, जिसे मृत्यु कहते हैं। किसी भी व्यक्ति की मृत्यु होने पर दुनिया वाले उस व्यक्ति का अन्त मान लेते हैं परन्तु धर्मशास्त्रों के अनुसार मृत्यु अन्त नहीं प्रारम्भ है, इसलिए अच्छे कर्म हमेशा करते रहना चाहिए। आत्मा अजर, अमर, अविनाशी है, जो ईश्वरीय विधान के अनुसार पृथ्वी पर विभिन्न योनियों में जन्म लेती है। मनुष्य जन्म लेने के बाद आत्मा का परम उद्देश्य मोक्ष की ओर अग्रसर होना है।
हिमशिखर धर्म डेस्क
आत्मा के सबसे निकट रहने वाला शरीर है, जो जन्म से लेकर मृत्यु तक बना रहता है। अतः इससे सर्वाधिक लगाव है। आज तक हमारी मान्यता शरीर के लिए ये रही है कि शरीर ही सब कुछ है। वस्तुतः शरीर वैसा नहीं है, इसलिए शरीर को जानना व समझना आवश्यक है। प्रायः लोगों की मान्यता है कि शरीर को खिला-पिलाकर पुष्ट रखें, ताकि संसार के कार्य संपन्न हो सकें। सुगंधित लेप आदि से इसका सौंदर्य निखरा रहे, लेकिन जिस प्रकार वृक्ष का पत्ता पहले लाल फिर हरा व अंत में पीला होकर गिरकर नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार समय पर शरीर भी पीले पत्ते की तरह मृत्यु को प्राप्त कर नष्ट हो जाता है।
हर दिन काल हमें मृत्यु की ओर सरका रहा है, सारा संसार धीरे-धीरे मृत्यु की ओर सरक रहा है, समय रहते जाग जाना ही मनुष्य जीवन की सार्थकता है। गरूण पुराण एवं गीता आदि धार्मिक ग्रंथों के अध्ययन से व्यक्ति को अपनी आत्मा से संबंधित तत्वों का बोध होता है। गीता के उपदेशों में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि आत्मा का अंत नहीं होता, वह सिर्फ शरीर रूपी वस्त्र बदलती है। आत्मा, परमात्मा के अस्तित्व को सभी को समझना अति आवश्यक है।
आत्मा के स्वरूप को समझना आत्मज्ञान है, अंग्रेजी में इसे सेल्फ रिलाइजेशन कहा गया है आत्मज्ञान के अभाव के कारण व्यक्ति इस संसार में राग, द्वेष, क्लेश के कारण दुःखों को प्राप्त करता है। समझदार व्यक्ति आत्मज्ञान प्राप्त कर इस जन्म के साथ अपने अगले जन्म को सुधार कर मोक्ष प्राप्त करता है। मनुष्य जन्म की सार्थकता इसी में है कि वह समय रहते इस सत्य से अवगत हो जाए कि जन्म लेने के बाद उसका अंतिम लक्ष्य मोक्ष प्राप्त करना है। धर्म शास्त्रों में मानव शरीर के विषय में कहा गया है कि यह भवसागर को पार ले जाने के लिए एक नौका समान है, इस देह में जो जीवात्मा का निवास होता है, वह परमात्मा से जुड़ी हुई है, आत्मा को पहचाना ही आत्मदर्शन है।
आत्मा – परमात्मा का ही अंश है। जिस प्रकार जल की धारा किसी पत्थर से टकराकर छोटे छींटों के रूप में बदल जाती है, उसी प्रकार परमात्मा की महान सत्ता अपने क्रीड़ा विनोद के लिए अनेक भागों में विभक्त होकर अगणित जीवों के रूप में दृष्टिगोचर होती हैं। सृष्टि सञ्चालन का क्रीड़ा कौतुक करने के लिए परमात्मा ने इस संसार की रचना की। वह अकेला था। अकेला रहना उसे अच्छा न लगा, सोचा एक से बहुत हो जाऊँ। उसकी यह इच्छा ही फलवती होकर प्रकृति के रूप में परिणित हो गई। इच्छा की शक्ति महान है। आकाँक्षा अपने अनुरूप परिस्थितियाँ तथा वस्तुयें एकत्रित कर ही लेती है। विचार ही कार्य रूप में परिणित होते हैं और उन कार्यों की साक्षी देने के लिए पदार्थ सामने आ खड़े होते हैं। परमात्मा की एक से बहुत होने की इच्छा ने ही अपना विस्तार किया तो यह सारी वसुधा बन कर तैयार हो गई।
परमात्मा ने अपने आपको बखेरने का झंझट भरा कार्य इसलिए किया कि बिखरे हुए कणों को फिर एकत्रित होते समय असाधारण आनन्द प्राप्त होता रहे। बिछुड़ने में जो कष्ट है उसकी पूर्ति मिलन के आनन्द से हो जाती है। परमात्मा ने अपने टुकड़ों को – अंश, जीवों को बिखेरने का विछोह कार्य इसलिए किया कि वे जीव परस्पर एकता, प्रेम, सद्भाव, संगठन, सहयोग का जितना – जितना प्रयत्न करें उतने आनन्दमग्न होते रहें। प्रेम और आत्मीयता से बढ़कर उल्लास शक्ति का स्रोत और कहीं नहीं है। अनेक प्रकार के बल इस संसार में मौजूद हैं पर प्राणियों की एकता के द्वारा जो शक्ति उत्पन्न होती है उसकी तुलना और किसी से भी नहीं की जा सकती।
आत्मा का न कोई रंग है और न कोई रूप, इसका कोई लिंग भी नहीं होता। ऋग्वेद में बताया गया है
अपाङ्प्राङ्ति स्वधया गृभीतोऽमत्यों मत्त्येना सयोनिः ।
ता शश्वन्ता विषूचीना वियन्तान्यन्यं चिक्युर्न नि चिक्युरन्यम् ॥
-ऋग्वेद 1/164 38
अर्थात् जीवात्मा अमर है और शरीर प्रत्यक्ष नाशवान। संपूर्ण शारीरिक क्रियाओं का अधिष्ठाता आता है, क्योंकि जब तक शरीर में प्राण रहता है, तब तक वह क्रियाशील रहता है। इस आत्मा के संबंध में बड़े-बड़े ज्ञानी भी जानने के इच्छुक रहते हैं। इसे ही जानना मानव जीवन का प्रमुख लक्ष्य है। बृहदारण्यक उपनिषद् 8/7/1 में आत्मा के संबंध में लिखा है।
‘परमात्मा’, आत्मा का परम रूप – साधारण इन्सान परमात्मा को अपने से अलग समझता है, परन्तु आत्मा और परमात्मा अलग-अलग नहीं बल्कि एक ही परम तत्व के दो नाम हैं, अंतर सिर्फ इतना है कि ‘परमात्मा’, आत्मा का परम रूप है। ‘परम’ का अर्थ है, संपूर्ण या विराट। आत्मा और परमात्मा को हम जल की एक बूंद और अथाह समुद्र के रूप में समझ सकते हैं। आत्मा उस परम तत्व की एक बूंद और परमात्मा उस परम तत्व का अनंत लहराता समुद्र है। आत्मा, परमात्मा और शरीर के सम्बन्ध को समझाने के लिए धर्मशास्त्रों में अनेक उदाहरण प्रस्तुत किए गए हैं। मानव शरीर एक घड़े के समान है, इसके अंदर आत्मा उसी प्रकार से विद्यमान है, जैसे घड़े के अन्दर समाया हुआ विराट सागर। एक घड़ा लेकर जब हम उस घड़े में सागर से पानी भरेंगे तो घड़े के अंदर समाए जल को ही हम आत्मा कहेंगे और इसके बाहर स्थित अथाह समुद्र को परमात्मा। परमात्मा का अंश आत्मा, शरीर रूपी घड़े के अन्दर उसी प्रकार से विद्यमान है जैसे अनन्त समुद्र की कुछ बूंदों को घड़े के अन्दर भरा हो।
श्रीमद्भगवद्गीता में आत्मा की अमरता के विषय पर विस्तृत व्याख्या की गई है
न जायते म्रियते वा कदाचिन्लायं भूत्वा भविता वा न भूयः ।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे । -श्रीमद्भगवद्गीता 2/20
अर्थात् यह आत्मा किसी काल में भी न तो जन्मता है और न मरता ही है तथा न यह उत्पन्न होकर फिर होने वाला ही है, क्योंकि यह अजन्मा, नित्य, सनातन और पुरातन है। शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता।
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि। तवा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही। -श्रीमद्भगवद्गीता 2/22
अर्थात् जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नए वस्त्रों को ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीर को त्यागकर दूसरे नए शरीर को प्राप्त होता है। आगे श्लोक 23 व 24 में लिखा है कि आत्मा को शस्त्र नहीं काट सकते, इसको आग नहीं जला सकती, इसको जल नहीं गला सकता और वायु सुखा नहीं सकता, क्योंकि यह आत्मा अछेद्य है, अदाह्य और निःसंदेह अशोष्य है और यह नित्य, सर्वव्यापी, अचल, स्थिर रहने वाला तथा सनातन है।