हिमशिखर धर्म डेस्क
भगवान् के निराकार के ध्यान में वैराग्य और उपरामता की बड़ी आवश्यकता है। अब उपरामता क्या है? वैराग्य की पराकाष्ठा ही उपरामता हैं। इन दोनों के प्राप्त होने पर समाधि अपने आप ही लग जाती है। वैराग्य स्वत: हो जाने पर ध्यान के लिए चेष्टा नहीं करनी पड़ती है। भागवतजी के अनुसार, आनन्द की अपारता को ही परमानन्द कहा गया है, जब उपरामता और वैराग्य नहीं है तो बहुत प्रयत्न करने पर भी मन स्थिर नहीं होगा, वैराग्य होता है तो संसार के पदार्थों के चित्र स्वत: ही शांत हो जाते हैं।
जहां सात्त्विकता भरी हो वहाँ वायु भी सहायक हो जाती है। इसमें दो बात मिलती है आरोग्यता और वैराग्य। भोग और आराम की दृष्टि से विचार किया जाए तो थोड़ी तकलीफ हो सकती है, असली चीज वैराग्य ही है, मखमल के गद्दे पर सोने पर हमें जो आनंद मिलता है, मेरा अनुमान है कि चटाई पर लेटने से कुछ आनन्द कम नहीं मिलता।
आराम की दृष्टि से मखमल के गद्दे और चटाई में क्या अंतर है? केवल मन की कल्पना है, संसार में सुख तो है ही नहीं, वैराग्य में सुख है, राग-द्वेष तो त्याग करने की चीज है, वैराग्य के सुख का सबको अनुभव नहीं हो सकता। श्रीमद्भागवत कथा में शुकदेवजी कहते हैं- राग से लाखों गुना सुख वैराग्य में है, इससे भी ज्यादा ध्यान में है, ध्यान से भी ज्यादा सुख परमात्मा की प्राप्ति में है।
बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विंदत्यात्मनि यत्सुखम्।
स ब्रह्ययोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते।।
गीता में भी भगवान् श्री कृष्णजी ने बताया हैं- बाहर के विषयों में आसक्ति रहित अंत:करण वाला साधक आत्मा में स्थित जो ध्यानजनित सात्त्विक आनंद है, उसको प्राप्त होता है। तदनंतर वह सच्चिदानंदघन परब्रह्म परमात्मा के ध्यान रूप योग में अभिन्न भाव से स्थित पुरुष अक्षय आनंद का अनुभव करता है, आनन्द की अति को ही परमानन्द कहा गया है, परमात्मा स्वयं ही परमानन्द हैं।
योऽन्त:सुखोऽन्तरारामस्तथान्तर्ज्योतिरेव य:।
स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति।।
गीता में भगवान् श्री कृष्णजी कहते हैं कि व्यक्ति अंतरात्मा में ही सुखवाला है, आत्मा में ही रमण करने वाला है तथा जो आत्मा में ही ज्ञानवाला है, वह सच्चिदानंदघन परब्रह्म परमात्मा के साथ एकीभाव को प्राप्त सांख्ययोगी शांत ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है। यानि भीतर से ही मनन करने वाला हो, उससे होने वाले सुख से सुखी हो। सज्जनों! हमको ध्यान रखना चाहिये कि हम जहाँ भी हों, जैसे भी हो या किसी भी स्थान पर हो, किसी भी अवस्था में हो सब प्रभु की कृपा ही है।
जहाँ ध्यान लगेगा, जहां प्रभु की चर्चा होगी, वहां आलस्य आ ही नहीं सकता है। यदि आता है तो समझना चाहिये उसकी रुचि नहीं है। फिर ख्याल रखने की यह बात है कि रूचि आयेगी कहाँ से? यह आयेगी श्रीमद्भागवत कथा के श्रवण से, राम कथा श्रवण से, गीता को पढ़ने से, भगवान् का नाम जप से विक्षेप का विनाश हो जाता है। जहां विवेक होता है, वहां बुद्धि की आवश्यकता होती है, जहां बुद्धि तीक्ष्ण होती है, वहां आलस्य का सामर्थ्य ही नहीं, कि पास आ सके।
जिनको भगवान् श्री कृष्णजी की भक्ति प्राप्त करनी है, तो भागवतजी के शरण में ही आना होगा, भगवान् के भक्ति की पराकाष्ठा हो तो जहाँ बैठे वहाँ समाधि लग जायें, भागवतजी में नारायण शब्द का अर्थ है, “सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म” अर्थात मन से परमात्मा का मनन करे, बार-बार आनंद शब्द का उच्चारण किया जाए, जिससे अन्त:करण की प्रसन्नता होने लगेगी, जिससे सम्पूर्ण दु:खों का अभाव हो जाता है और मन प्रसन्न हो जाता है।
उस प्रसन्न चित्तवाले कर्मयोगी की बुद्धि शीघ्र ही सब ओर से हटकर एक परमात्मा में भली भांति स्थिर हो जाती है। भागवतजी भगवान् श्री कृष्णजी का विग्रह स्वरूप ही है, भागवत पुराण। सनातन धर्म के अट्ठारह पुराणों में से एक है, श्री श्रीमद्भागवत पुराण और जो व्यासपीठ से व्यासजी के द्वारा सुनी जाती है, वह श्री मद़्भागवत कथा, और एक सप्ताह का समय लगता है, इसलिये इसे श्रीमद्भागवत कथा यज्ञ सप्ताह या भागवतम् भी कहते हैं।
इसका मुख्य वर्ण्य विषय भक्ति योग है, जिसमें कृष्णजी को स्वयं भगवान् के रूप में चित्रित किया गया है, इसके अतिरिक्त इस पुराण में रस भाव की भक्ति का निरुपण भी किया गया है, आज महलों में रहकर भी जीवन में रस नहीं आ रहा है, क्या कारण है? भागवतजी का श्रवण करो, प्रभु का चिन्तन करो, झोपड़ी में रहकर भी जीवन में रस आने लगेगा।