मृत्यु जीवन का एक बहुत ही आवश्यक और अनिवार्य अंग है। यदि मृत्यु न हो तो यह जीवन भार बन जाय। यह संसार काँटों की तरह चुभने लगे। हीन से हीन व्यक्ति में भी जीने की जो चाह है वह मृत्यु की कृपा से ही है। मृत्यु को हटा दीजिए जीवन से लोग ऊबने लगेंगे। यदि मृत्यु का अस्तित्व न रहे तो कल्पना कीजिए कि उन लोगों का क्या हाल हो जो अनेकों कष्ट पा रहे होते हैं। रोग, शोक, अभाव, कठिनाइयों की असह्य मार से मृत्यु देवता ही तो बचाता है। जीर्ण-शीर्ण परावलम्बी असमर्थ वृद्ध शरीर से छुटकारा मरण देवता ही दिलाते है। शारीरिक असमर्थता के कारण परावलम्बी हो जाने वाले लोगों का मुक्तिदाता, असाध्य रोगों से ग्रस्त लोग जिनकी कोई चिकित्सा नहीं हो सकती, उनका धन्वन्तरि, परमदयालु मृत्यु देवता ही है। संसार जिन्हें ठुकरा देता है, समय जिनके आनन्द खुशी को छीन लेता है उन्हें मौत ही अपने अंग में बिना किसी भेद-भाव के स्थान देती है।
हिमशिखर धर्म डेस्क
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्वाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा न्यन्यानि संयाति नवानि देही॥ (गीता)
यानी जिस प्रकार से मनुष्य अपने फटे पुराने वस्त्रों को त्याग कर नये वस्त्र धारण करता है, उसी प्रकार मृत्यु होने पर आत्मा पुराने तथा व्यर्थ शरीर को त्याग कर नया शरीर धारण करती है।
जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि।।2.27।।
यानी पैदा हुएकी जरूर मृत्यु होगी और मरे हुए का जरूर जन्म होगा। इस (जन्म-मरण-रूप परिवर्तन के प्रवाह) का परिहार अर्थात् निवारण नहीं हो सकता। अतः इस विषयमें तुम्हें शोक नहीं करना चाहिये।
हम किस तरह से जीवन जीते हैं, वही हमारे लिए मृत्यु को परिभाषित करता है। जो लोग अनमने भाव से संसार में रहते हैं, उनकी दृष्टि में मृत्यु जीवन का अंत है। ये ऐसे लोग होते हैं, जिन्होंने बहुत कुछ सीखा, लेकिन कैसे जिएं- यह नहीं सीख पाए। उनके विचार में मृत्यु जीवन की एक व्यवस्था है। लेकिन जीवन का बोध जिन्हें हो गया है उनकी दृष्टि में मृत्यु जीवन का मूल्य है। जीवन जीते हुए यदि मृत्यु का सत्य समझ आ जाए तो सारी शक्तियां कल्याण की दिशा में लग जाती हैं। जगत में मृत्यु न होती तो धर्म की खोज भी नहीं होती।
यही कारण है कि जैसे-जैसे उम्र हाथ से फिसलती है, वैसे-वैसे धर्म की चिंता शुरू हो जाती है। समय रहते जिंदगी को समझ लिया जाए तो मौत भी समझ में आ जाती है। इसी बात को ऐसे भी समझा जा सकता है कि मौत समझ में आ जाए तो जीने का सही ढंग भी हम सीख जाते हैं। जन्म के समय हम सभी कोरे कागज की भांति होते हैं, पर अंतिम सांस तक सारी कथा उस पर लिख दी जाती है। मृत्यु का सतत बोध हमें जीवन की गहराइयों में ले जाता है। अगर हम चिंतन करें तो छोटी-छोटी घटनाओं से अपनी मृत्यु का बोध लेकर सतर्क और सजग बने रह सकते हैं।
पेड़ से पीले पत्ते का टूटना हमारे लिए ऐसा ही बोध हो सकता है। ऐसे ही पानी के बुलबुले का फटना, हर शाम सूरज का ढलना, हर अर्थी का उठना- ये सब हमारे लिए जिंदगी और मौत की सचाई तक पहुंचने के सूत्र बन सकते हैं। लेकिन हम किसी की मृत्यु पर बड़े सहज लहजे में कह देते हैं, बेचारा चला गया। जैसे हम तो अमर रहने वाले हैं। जबकि हर उठती हुई अर्थी बताती है कि हमारे जीवन में भी यह पल किसी भी दिन आ सकता है। इसलिए जो शुभ है, कल्याणकारी है उसे करने में लेशमात्र भी विलंब न करें।
सच यह है कि मृत्यु भय का पर्याय नहीं। यह तो हमारी परम मित्र है जो हमें हर घड़ी सचेत करती है कि मानव जीवन मिला है तो उसके एक-एक क्षण का उस साधना में उपयोग करो, जो जीवन को कृतार्थ करती है। वस्तुओं की क्षणिकता, जीवन की अनित्यता और मृत्यु की अनिवार्यता का चिंतन करके जीवन के अंतिम लक्ष्य शाश्वत सुख को पाएं।
मृत्यु सत्य है, मृत्यु अटल है, मृत्यु साक्ष्य है, मृत्यु लक्ष्य है। जीवन का अंतिम चरण मृत्यु है, सत्य यही है मृत्यु अकाट्य है।। मृत्यु को आनी है तो आएगी, एक नया जन्म दिखलाएगी। तज कर संशय छोड़ निराशा, कर लें कुछ अच्छे की आशा।।