पानी की कमी के संकट से दुनिया का हर देश जूझ रहा है। ये किसी एक देश की कहानी नहीं बल्कि दुनिया के लगभग हर देश पानी की कमी से जूझ रहा है। लोगों को जल संरक्षण को लेकर जागरूक करने के लिए हर साल वैश्विक जल दिवस मनाया जाता है।
प्रो. गोविन्द सिंह
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं:
तपाम्यहमहं वर्षं निगृह्णाम्युत्सृजामि च।
अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन।। (गीता 9/19)
अर्थात् – हे अर्जुन! संसार के हित के लिए मैं ही सूर्यरूप से तपता हूं, मैं जल को ग्रहण करता हूं और (फिर उस जल को) मैं ही वर्षा रूप से बरसा देता हूं। अमृत और मृत्यु तथा सत् और असत् भी मैं ही हूं।
भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक के जरिए प्रकृति के कण-कण में अपनी उपस्थिति के बारे में बता रहे हैं। यह भारतीय संस्कृति की विशेषता है कि प्रकृति की दी हुई तमाम नेमतों में ईश्वर का वास बताया गया है। यानी जो चीजें हमें प्रकृति से प्राप्त होती हैं, हम उनका इस्तेमाल सलीके से करें। अधिकारी की तरह नहीं, कर्तव्य की तरह करें। वे हमारे अनाप-शनाप भोग के लिए नहीं है, जरूरत के अनुरूप उपभोग के लिए है।
विडंबना यह है कि आज हमने प्रकृति को दोहन की चीज समझ लिया है। हम पानी का इस्तेमाल करते हैं। खासकर शहरी लोग पानी का इस्तेमाल करते हुए यह भूल जाते हैं कि इस पर किसी और का अधिकार है। पानी ही नहीं, हम जल-जंगल और जमीन, हर चीज का इस्तेमाल लूट-खसोट की हद तक कर रहे हैं। एक बाल्टी से हम नहा सकते हैं, लेकिन हम चार बाल्टी बर्बाद करते हैं। हमारा काम दाे कमरों के घर से चल सकता है, लेकिन हम दस कमरों का मकान बनवाते हैं। इसलिए नहीं की हमारी जरूरत है, बल्कि इसलिए कि इससे हम दूसरों पर रौब गालिब कर सकें।
गीता के उक्त श्लोक के जरिए भगवान् यह बता रहे हैं कि वे ही सूर्यरूप से जलीय भाग को ग्रहण करके समय आने पर वर्षा रूप से प्राणिमात्र के हित के लिए बरसाते हैं, जिससे प्राणिमात्र का जीवन चलता है। बिना जल के मानव जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। प्राणिमात्र का हित प्रकृति की मूलभूत अपेक्षा है। हमने उसे विलासिता में तब्दील कर दिया है।
हमारे पूर्वज ऐसा नहीं करते थे। हजारों वर्षों से वे पहाड़ों में निवास कर रहे थे। उन्होंने प्रकृति से उतना ही लिया, जितना कि जीवन-यापन के लिए आवश्यक था। एक ही जलस्रोत से पूरे गांव की जरूरत पूरी हो जाया करती थी। ऐसा नहीं की वे पानी कम पानी पीते था या कपड़े कम धोते थे। वे भी तमाम काम करते थे, जो आज का आदमी करता है। बस अंतर सिर्फ यह है कि वे ढकोसला नहीं करते थे। इसलिए की वे प्रकृति की दी हुई जमीन का अपने स्वार्थ के लिए कम इस्तेमाल करते थे। भारतीय लोगों की जीवन शैली ही ऐसी थी कि उसमें सादगी और त्याग सबसे ऊपर था। आज जो जीवन शैली हमने अपनाई है, उसमें दिखावा ज्यादा है। हमने भारतीय मूल्य भुला दिए हैं।
पश्चिम की जीवन शैली में समग्रता नहीं है। वे जीवन को खानों में बांट कर देखते हैं। एक खाने को नहीं मालूम की दूसरे खाने में क्या हो रहा है? मुन्ना भाई…में संजय दत्त कहता है कि यहां घुटने वाले डाक्टर को नहीं मालूम की पेट में क्या होएला है! आदमी को सम्पूर्णता में कोई नहीं दिखता। वे पहले जम कर उपभोग करते हैं, जब संकट आता है, तब हाय-तौबा मचाते हैं। पहले उन्होंने जमकर प्रकृति का दोहन किया, जिनसे धरती गरम हो जाती है। अब, पता चला कि इससे तो जलवायु ही बदल जाएगी। आदमी का रहना मुश्किल हो जाएगा, तब उन्हें पर्यावरण की याद आ रही है।
पश्चिम की तुलना में भारतीय जीवन दृष्टि मनुष्य को समग्रता में देखती है। प्रकृति और मनुष्य के बीच एक सौहार्द का रिश्ता रहता है, जिससे किसी को कोई नुकसान नहीं होता है। हजारों साल पहले श्रीकृष्ण भगवान् इसका समाधान बता चुके हैं। पश्चिम को अभी इस दिशा में बहुत कुछ सीखना है। (लेखक जाने-माने स्तंभकार हैं)