सुप्रभातम्: अच्छे संस्कार रोक सकते हैं अपराध

Oplus_131072

संस्कार अपराध को रोकने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, क्योंकि संस्कार का मतलब होता है आदतें और दृष्टिकोण जो हमारी प्रवृत्तियों और व्यवहारों को निर्धारित करते हैं जब हमारे संस्कार शुद्ध होते हैं और हमारी सोच सकारात्मक होती है, तब हमें अपराधों से दूर रहने की जरूरत नहीं होती है। यदि हम सकारात्मक संस्कार बनाएंगे और अपने दृष्टिकोण को सकारात्मक बनाएंगे तो हम अपराधों से दूर रह सकते हैं। इसलिए संस्कार हमें एक सकारात्मक जीवन जीने में मदद करते हैं जिससे हम अपराधों से बच सकते हैं। इसलिए संस्कार बहुत महत्वपूर्ण होते हैं जो हमें अपराधों से बचाते हैं और सकारात्मक जीवन जीने में मदद करते हैं।

Uttarakhand

हिमशिखर धर्म डेस्क

अपराध दूषित मानसिकता के कारण पनपता है। समाज में नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों का बढ़ता पतन ही दूषित मानसिकता का मुख्य कारण है। इन मूल्यों के अभाव के पीछे कारण है, जीवन से नैतिक शिक्षा और संस्कारों का निकल जाना।

” संस्कार रहिता ये तु तेषां जन्म निरर्थकम्”

यानी संस्कारों के बिना मानव का जीवन व्यर्थ है। हमारे ऋषि-मुनियों ने इस आध्यात्मिक सत्य को बहुत गहराई से पहचाना। उन्होंने पाया कि माता के गर्भ में जीवन धारण करने से लेकर पैदा होने और फिर एक दिन श्मशान जाने की यात्रा तक मानव के जीवन में अनेकों अनेक मोड़ आते हैं। यदि इन महत्वपूर्ण मोड़ों में जीवात्मा को संभाला न जाए तो वह नरकीट, नरवानर और नर पशुता की ओर प्रस्थान करता चला जाता है। जीवन के इन मोड़ों पर सावधान करने और उंगली पकड़कर सही रास्ता दिखाने के लिए हमारे मनीषियों ने संस्कार प्रक्रिया की बात कही थी। प्राचीन काल में संत, पुरोहित और विद्वत वर्ग के लोग इस बीड़े को उठाए हुए थे। वे आने वाली पीढ़ियों को सोलह-सोलह अग्नि पुटों से गुजारकर खरे सोने जैसे व्यक्तित्व में ढालते थे।

जिस प्रकार स्वर्ण मूल्यवान होकर भी अन्य धातुओं के मिल जाने पर कम मूल्यवान बन जाता है तथा क्षार, तेजाब आदि से शोधित करने सुख पर शुद्ध हो जाता है। उसी प्रकार संस्कारों की भट्ठी में तपाकर जीवात्माओं को शुद्ध किया जाता था। लेकिन धीरे धीरे इनका लोप होता चला जा रहा है। ये संस्कार जीवन में नाम मात्र के लिए प्रचलित होते जा रहे हैं।

वर्तमान युग में संस्कारों की, उच्च विचारों की कमी साफ झलकती है। इसी सब का परिणाम है कि  इसे कलियुग कहा जाने लगा है। हममें से कितने लोगों का इस बात का ज्ञान है कि जीवन में सफलता प्राप्त करना और सफल जीवन, ये दो अलग-अलग बातें हैं। यह जरूरी नहीं है कि जिसने अपने जीवन में साधारण कामनाओं को हासिल कर लिया हो, वह पूर्णतः संतुष्ट ही हो। इसलिए हमें गंभीरतापूर्वक इस बात पर मनन करना चाहिए कि इच्छित फल प्राप्त कर लेना ही सफलता नहीं है। जब तक हम अपने जीवन में संस्कार और आध्यात्मिक मूल्यों को महत्व नहीं देंगे, तब तक यथार्थ में सफलता प्राप्त पाना हमारे लिए मुश्किल ही है।

आज समाज में देखा जाता है कि अधिकांश लोग केवल पैसा कमाने को अपने जीवन का लक्ष्य बना चुके हैं। बच्चों के माता-पिता का ध्यान सिर्फ इस बात पर है कि उनके बच्चे अच्छे नंबरों से पास हो जाएं और अच्छी नौकरी मिल जाए। वे अपने बच्चों को केवल पैसा छापने की मशीन बनाने में तुले हुए हैं। इतना ही नहीं, हर मां-बाप अपने बच्चे को खूब संपत्ति देकर विदा होने में सतुष्टि महसूस करते हैं। लेकिन यह सारी संपत्ति उस एक धन के आगे कंकड़ के समान है जिसे ज्ञान कहते हैं। नीति शास्त्र में कहा गया है कि-

‘माता शत्रुः पिता वैरी, ये बालो न पाठितः’

यानी वह माता-पिता बच्चों के शत्रु हैं, जो अपने बच्चों को संस्कारवान शिक्षा प्रदान करने की उचित व्यवस्था नहीं करते हैं। भौतिक संपत्ति अर्जित कर देने मात्र से माता-पिता बच्चों के शुभ चिंतक नहीं हो जाते। मानव चरित्र को तीन भागों ले में विभाजित किया जा सकता है। प्रथम तो ईश्वर प्रदत्त चारित्रिक गुण दोष हैं। उन्हीं चारित्रिक गुणों का विकास वंशानुक्रम के आधार पर होता है। दूसरे भाग में घर-परिवार के आचरण भी बालक के चरित्र को प्रभावित करते हैं। तीसरे भाग में चरित्र को अधिक प्रभावित करने में विद्यालय का वातावरण, अध्यापक व छात्रों के साथ-साथ आस पड़ोस, सामाजिक रहन सहन, वातावरण भी एक विशिष्ट स्थान रखते हैं। तीसरे भाग के चरित्र को अर्जित चरित्र की संज्ञा दी जा दो सकती है। वर्तमान समय में बढ़ते हुए अनैतिक क्रियाकलापों का मुख्य कारण चरित्र निर्माण की शिक्षा न दिया जाना है। इसके लिए जरूरी है कि यदि समाज को बुरे कार्यों से बचाना है तो नई पीढ़ी को जीवन मूल्यों ही की शिक्षा दी जाए। उन्हें संस्कारवान बनाने पर न में जोर दिया जाए। क्योंकि मनुष्य और पशु में संस्कारों के कारण ही भेद होता है। ‘पशु इति पश्यति‘ अर्थात पशु वह है, जो देखता है, उसी के अनुसार निर्णय लेता है। लेकिन मानव दृश्य से परे भी अपनी बुद्धि, विवेक और ज्ञान से जीवन में अग्रसर होता है। शुद्ध संस्कारों के माध्यम से ही बल, बुद्धि, ज्ञान, विवेक और ओज का विकास पूर्ण रूप संभव है। माता-पिता, शिक्षकों और समाज के विद्वत वर्ग के लोगों के साथ ही संतों को मानव के स्तर को बढाए जाने पर विचार करना चाहिए।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *