श्रीराम रावण का युद्ध एक धर्म युद्ध था। यह युद्ध अहंकारी रावण के बढ़ते अत्याचारों से धरती को मुक्त कराना था। जिसके लिए प्रभु राम काे रावण से भयंकर युद्ध करना पड़ा। इस युद्ध में एक पक्षी राज भी वीरगति को प्राप्त हुए।
हिमशिखर धर्म डेस्क
अरण्यकाण्ड में श्रीराम ऋषि अगस्त्य के आश्रम में पहुँचने के बाद उनसे आगे जाने का स्थान पूछते हैं ऋषि अगस्त्य श्रीराम को वह सुन्दर स्थान बड़े ही रहस्यपूर्ण शब्दों में इस प्रकार बताते है –
है प्रभु परम मनोहर ठाऊँ।पावन पंचवटी तेहि नाऊँ॥
दंडक बन पुनीत प्रभु करहू। उग्र साप मुनिबर कर हरहू ॥ श्रीराम च.मा.अरण्यकाण्ड 12- 8
हे प्रभो ! एक परम मनोहर और पवित्र स्थान हैं, जिसका नाम पंचवटी है। प्रभु! आप दण्डकवन (जहां पंचवटी है) पवित्र कीजिये और श्रेष्ठ मुनि गौतमजी के कठोर शाप को हर लीजिये।
यहाँ पर गृध्रराज जटायु से श्रीराम की प्रथम भेंट हुई । गृध्रराज जटायु से श्रीराम ने प्रीति कर गोदावरी के पास पर्णशाला निर्मित की ।
गीधराज सें भेंट भई बहु बिधि प्रीति बढ़ाइ।
गोदावरी निकट प्रभु रहे परन गृह छाइ ॥
श्रीराम .च.मा.अरण्य काण्ड दोहा 13
श्रीराम एवं गीधराज जटायु की प्रीति क्यों हुई? श्रीराम ने उसे राक्षस समझकर क्या प्रश्न किया? आदि का वर्णन महर्षि वाल्मीकिजी ने संक्षिप्त में अपनी ही शैली से इस प्रकार किया है –
तं दृष्ट्वा तौ महाभागौ वनस्थं रामलक्ष्मणौ ।
मेनाते राक्षसं पक्षि बु्रवाणौ को भवानीति ॥
श्री वा.रा. अरण्य 14-2
वन में बैठे हुए उस विशाल पक्षी को देखकर महाभाग श्रीराम और लक्ष्मण ने उसे राक्षस ही समझा और उनसे पूछा- आप कौन है ? तब जटायु जी ने उन्हें इस प्रकार उत्तर दिया –
ततो मधुरया वाचा सौम्यया प्रीणयन्निवः ।
उवाच वत्स मां विद्धि वयस्यं पितुरात्मनः ॥
श्री. वा.रा. अरण्य 14-3
तब जटायु नें बड़ी मधुर व कोमल वाणी में उन्हें प्रसन्न करते हुए कहा -वत्स मुझे अपने पिता का मित्र समझो। श्रीराम इस परिचय से भी संतुष्ट न हुए तथा शान्त भाव एवं पिता के मित्र मानकर उनका कुल और नाम पूछा। जटायु ने विनता के दो पुत्र गरूड़ और अरूण बताये तथा अरूण के पुत्र सम्पाति को अपना बड़ा भाई तथा स्ययं को जटायु बताया ।
जटायु ने श्रीराम से कहा हे वत्स ! यदि आप चाहे तो मैं आपके वन निवास में सहायक होऊँगा। यह दुर्गम वन मृगो तथा राक्षसों से सेवित है । लक्ष्मण सहित आप यदि अपनी पर्णशाला से कभी बाहर चले जायँ तो उस अवसर पर मैं देवी सीता की रक्षा करूँगा।
जटायुषं तु प्रतिपूज्य राधवो मुदा परिष्वज्य च संनतोऽअभवत् ।
पितुुर्हि शुश्राव सखित्वमात्मवा -ञज्टायुषा संकथितं पुनः पुनः ॥ श्री वा.रा. अरण्य 14-35
यह सुनकर श्रीराम जी ने जटायु का बड़ा सम्मान किया और प्रसन्नतापूर्वक अनके गले लगकर वे उनके सामने नतमस्तक हो गये । फिर पिता के साथ उनकी मित्रता हुई थी वह प्रसंग मनस्वी श्रीराम ने जटायु के मुख से बार-बार सुना।
जटायु ने दशरथजी की मित्रता की परीक्षा श्रीसीताहरण के समय अपनें प्राणों की बाजी लगा कर दे ही दी। जब जटायु ने देखा कि दुष्ट रावण सीताजी का हरण कर ले जा रहा है तब कहा –
सीते पुत्रि करसि जनि त्रासा। करिहउँ जातुधान कर नासा ।
धावा क्रोधवंत खग कैसें। छूटइ पबि परबत कहुँ जैसे ॥
श्रीरामचरित.मा.अरण्य -दोहा 28-5
जटायु जी बोले हे सीते पुत्री। भय मत कर। मैं इस राक्षस का नाश करूँगा इतना कह कर जटायुजी क्रोध में भरकर कैसे दौड़े , जैसे पर्वत की ओर वज्र छूटता हो। जटायु ने रावण के बाल पकड़कर उसको रथ से नीचे उतार दिया। रावण पृथ्वी पर गिर पड़ा जटायु जी ने श्रीसीताजी को एक ओर सुरक्षित बैठाकर लौट कर रावण को चौचों से मार मार कर शरीर विदीर्ण कर डाला तथा रावण एक घड़ी के लिये मूिच्र्छत हो गया ।
जटायुजी ने रावण से कहा रावण ! बाप-दादाओं से प्राप्त इस पक्षियों के राज्य का विधिवत पालन करते हुए मुझे जन्म से लेकर अब तक साठ हजार वर्ष बीत गये है । मैं बूढ़ा हो गया हूँ तुम नवयुवक हो । तुम्हारे पास धनुष, कवच, बाण तथा रथ सब कुछ है फिर भी तुम सीता को कुशलता पूर्वक नहीं ले जा सकते हो ।
अवश्यं तु मया कार्यं प्रियं तस्य महात्मनः ।
जीवितेनापि रामस्य तथा दशरथस्य च ॥
श्री वा.रा. अरण्य सर्ग 50-27
मुझे अपने प्राण देकर भी महात्मा श्रीराम तथा दशरथ का प्रिय कार्य अवश्य ही करना होगा। जटायु ने रावण के सारथि, रथ के धोड़े आदि को काल के गाल में गिरा दिया। जटायु के पास मात्र नख,पाँख और चोंच ही हथियार थे तथा वह रावण पर इनका प्रयोग कर रहे थे । अन्त में रावण ने तलवार से श्रीराम के लिए पराक्रम करने वाले जटायु के पंख ,पैर तथा पार्श्व भाग काट दिया । श्रीराम कपट मृग मारीच का वध कर लक्ष्मण सहित पर्णकुटि की ओर लौटे तब देखा कि –
अयं पितुर्वयस्यो मे गृध्रराजो महाबलः ।
शेते विनिहतो भूमौ मम भाग्यविपर्ययात् ॥
श्री वा.रा. अरण्य सर्ग 67 – 27
ये महाबली गृध्रराज जटायु मेरे पिताजी के मित्र थे किन्तु आज मेरे दुर्भाग्य वश मारे जाकर इस समय पृथ्वी पर पड़े है। इस प्रकार बहुत सी बाते कहकर लक्ष्मण सहित श्रीराम ने जटायु के शरीर पर हाथ फेरा और पिता के प्रति जैसा स्नेह होना चाहिये , वैसा ही उनके प्रति प्रदर्शित किया।
जटायु ने बताया है तात् ! जब मैं रावण से लड़ता-लड़ता थक गया उस अवस्था में मेरे दोनों पंख काटकर निशाचर विदेहनन्दिनी सीताजी को यहां से दक्षिण दिशा की ओर ले गया । जटायु ने बताया कि रावण विश्रवा का पुत्र और कुबेर का सगा भाई है अंत में इतना कहकर पक्षीराज ने दशरथ जी की मित्रता की परीक्षा देकर दुर्लभ प्राणों का परित्याग कर दिया ।
वाल्मीकीय के एक संस्कृत टीकाकार ने लिखा है कि राजा लोग एक दूसरे से मित्रता रखते है जैसे रावण ने वानरराज बालि से मित्रता की, श्रीरामजी ने सुग्रीव से मित्रता की , दशरथजी ने जटायु से ,गृध्रराज होने से मित्रता थी ।
एक कथा आग्नेय रामायण में कही गयी है कि कौशल्या जी के विवाह के लिये बारात चली । रावण ने विध्न डाला। जिस नदी से राजा नाव पर जा रहे थे उसमें बाढ़ आ गई। नाव टूटी दशरथजी एक बहते हुये टापू पर जा लगे। गुरू वशिष्ठ भी उनके साथ थे । उस समय यह चिन्ता हुई कि विवाह का मुहुर्त निकट है कोसलपुर कैसे पहुँचे ? तब गृध्रराज जटायु ने दशरथ जी को पीठ पर सवार कर वहाँ पहुँचा दिया था।
भावार्थ रामायण के प्रसंग में वर्णित है कि जब दशरथ जी नमुचि युद्ध में इन्द्र की सहायता करने गये तब जटायु ने नमुचि का शिरस्त्राण उड़ा दिया, उसी समय दशरथ जी ने बाण से दैत्य का विनाश कर दिया। इस प्रकार से अपने आपको दशरथजी का युद्धसखा निरूपित किया हैं। दशरथ जी की आयु 60 हजार वर्ष थी ,जटायु की भी यथा –
षष्टिवर्षसहस्त्राणि मम जातस्य रावण : श्री वा.रा. अरण्य 3-50 -20,मनु जो दशरथ हुए कश्यप के पौत्र और जटायु भी कश्यप के पौत्र अथवा कश्यप ही दशरथ है और जटायु कश्यप के पौत्र है इत्यादि बहुत प्रकार के नाते रिश्ते बताकर जटायु ने श्रीराम से प्रीति बढ़ायी।
आज हमारे समाज में जटायु जैसे निस्वार्थ त्यागी, सच्चे , धर्म की रक्षा में रत , देश प्रेम के लिये बलिदान करने वालों की नितांत आवश्यकता है ।
रामायण या श्रीरामचरितमानस की कथायें समाज में मार्गदर्शन कर रही है तथा भौतिकवादी समाज में आध्यात्म की ओर अग्रसर होने की प्रेरणा देती है। यदि हम अपने आपाधापी के जीवन में अनेक नहीं अपितु एक ही मित्र जटायु सा प्राप्त कर लेते हैं तो हमारी जीवन की सबसे बड़ी कमाई तथा सार्थकता है।