सुप्रभातम्: कैसे आदि शंकराचार्य ने करवाई थी सोने की बारिश?

आदि शंकराचार्य का कनकधारा स्तोत्रम दुखों को दूर करने और आर्थिक सहायता का वरदान देने के लिए देवी माता लक्ष्मी की स्तुति है। कनकधारा स्तोत्रम देवी लक्ष्मी, समृद्धि की देवी, धन, उर्वरता, सौभाग्य और साहस को समर्पित है। श्री कनकधारा स्तोत्र गुरु आदि शंकराचार्य द्वारा रचित है। ऐसा माना जाता है कि आदि शंकराचार्य ने देवी लक्ष्मी की स्तुति में श्री कनकधारा स्तोत्रम की रचना की और देवी से एक गरीब महिला पर धन बरसाने की प्रार्थना की और माता लक्ष्मी ने गुरु आदि शंकराचार्य की प्रार्थना को स्वीकार करते हुए इस शक्तिशाली कनकधारा स्त्रोतम को अपना प्रिय स्तुति का स्थान दिया।

Uttarakhand

हिमशिखर धर्म डेस्क

एक समय की बात है आदि शंकराचार्य भिक्षाटन हेतु एक सद्गृहस्थ व्यक्ति के द्वार पर गए। वह अत्यंत दिन एवं विपन्नावस्था में जीवन यापन कर रहा था।आचार्य ने दो बार कहा “भिक्षाम देहि”।

भक्तिमति गृहणी ने एक तेजस्वी याचक को अपने द्वार पर देखा तो बड़े असमंजस में पड़ गई कि उसके पास तो देने को कुछ भी नही है,वह अतिथि को भिक्षा के लिए क्या दे, कहां से ला कर दे।फिर भी वह पूरे घर मे घूम घूम कर देखने लगी कि शायद भिक्षा में कोई चीज देने के लिए मिल ही जाए। उसे अपनी अवस्था पर रोना आ रहा था।बार बार एक ही बात उसके मस्तिष्क में गूंज रही थी कि क्या मुह लेकर वह याचक के पास जाएगी।तभी उसे घर मे एक आवले का फल मिला, जिसे लेकर वह याचक के पास पहुची और बड़े संकोच के साथ वह फल अर्पण करने लगी।

शंकराचार्य को उसकी दुखावस्था पर बड़ा तरस आया।उन्होंने तत्काल महालक्ष्मी माता की स्तुति की। उनकी वाणी से अनायास ही ऐसी करुणापूर्ण ध्वनि प्रस्फुटित हुई, जिसे सुनकर भगवान नारायण की वात्सल्यमयी भगवती महालक्ष्मी तत्क्षण शंकराचार्य जी के सामने अपने त्रिभुवन मोहिनी रूप में प्रकट हो गई औऱ मधुर स्वर में पूछने लगी, “हे आचार्य आपने मुझे कैसे स्मरण किया?”

आचार्य हाथ जोड़कर बोले ” हे महादेवी आप मेरी विनती पर ध्यान देते हुए इस दरिद्र दम्पति पर अपनी कृपा की वर्षा करें।”

“मैं आपके आशय को समझ गई आचार्य, किंतु इस दम्पति का प्रारब्ध ऐसा नही है कि इसे इस जन्म में धन की प्राप्ति हो सके।पूर्व जन्म में भी इन्होंने कोई ऐसा सुकृत नही किया है, जिसके फलस्वरूप इसे धन संपत्ति दी जा सके।”

“हे महादेवी इससे क्या हुआ? मेरे जैसे भिक्षुक को आंवले का दान देकर इन्होंने जो महान पुण्य राशि अर्जित की है, उसके कारण यह अतुल धन संपत्ति के स्वामी हो गए हैं। अतः इन पर आपकी कृपा अवश्य होनी चाहिए।”

शंकराचार्य की इस युक्ति का खंडन भगवती महालक्ष्मी भी नही कर सकी और उसी समय उस दम्पत्ति के घर के आंगन में सुवर्ण की वर्षा हुई, जिसके फलस्वरूप उस का दारिद्र्य सदैव के लिए दूर हो गया और वह प्रचुर धन संपत्ति के स्वामी हो गए।

पढ़ें कनकधारा स्तोत्र

अंगहरे पुलकभूषण माश्रयन्ती भृगांगनैव मुकुलाभरणं तमालम।
अंगीकृताखिल विभूतिरपांगलीला मांगल्यदास्तु मम मंगलदेवताया:।।1।।

मुग्ध्या मुहुर्विदधती वदनै मुरारै: प्रेमत्रपाप्रणिहितानि गतागतानि।
माला दृशोर्मधुकर विमहोत्पले या सा मै श्रियं दिशतु सागर सम्भवाया:।।2।।

विश्वामरेन्द्रपदविभ्रमदानदक्षमानन्द हेतु रधिकं मधुविद्विषोपि।
ईषन्निषीदतु मयि क्षणमीक्षणार्द्धमिन्दोवरोदर सहोदरमिन्दिराय:।।3।।

आमीलिताक्षमधिगम्य मुदा मुकुन्दमानन्दकन्दम निमेषमनंगतन्त्रम्।
आकेकर स्थित कनी निकपक्ष्म नेत्रं भूत्यै भवेन्मम भुजंगरायांगनाया:।।4।।

बाह्यन्तरे मधुजित: श्रितकौस्तुभै या हारावलीव हरि‍नीलमयी विभाति।
कामप्रदा भगवतो पि कटाक्षमाला कल्याण भावहतु मे कमलालयाया:।।5।।

कालाम्बुदालिललितोरसि कैटभारेर्धाराधरे स्फुरति या तडिदंगनेव्।
मातु: समस्त जगतां महनीय मूर्तिभद्राणि मे दिशतु भार्गवनन्दनाया:।।6।।

प्राप्तं पदं प्रथमत: किल यत्प्रभावान्मांगल्य भाजि: मधुमायनि मन्मथेन।
मध्यापतेत दिह मन्थर मीक्षणार्द्ध मन्दालसं च मकरालयकन्यकाया:।।7।।

दद्याद दयानुपवनो द्रविणाम्बुधाराम स्मिभकिंचन विहंग शिशौ विषण्ण।
दुष्कर्मधर्ममपनीय चिराय दूरं नारायण प्रणयिनी नयनाम्बुवाह:।।8।।

इष्टा विशिष्टमतयो पि यथा ययार्द्रदृष्टया त्रिविष्टपपदं सुलभं लभंते।
दृष्टि: प्रहूष्टकमलोदर दीप्ति रिष्टां पुष्टि कृषीष्ट मम पुष्कर विष्टराया:।।9।।

गीर्देवतैति गरुड़ध्वज भामिनीति शाकम्भरीति शशिशेखर वल्लभेति।
सृष्टि स्थिति प्रलय केलिषु संस्थितायै तस्यै ‍नमस्त्रि भुवनैक गुरोस्तरूण्यै ।।10।।
श्रुत्यै नमोस्तु शुभकर्मफल प्रसूत्यै रत्यै नमोस्तु रमणीय गुणार्णवायै।
शक्तयै नमोस्तु शतपात्र निकेतानायै पुष्टयै नमोस्तु पुरूषोत्तम वल्लभायै।।11।।
नमोस्तु नालीक निभाननायै नमोस्तु दुग्धौदधि जन्म भूत्यै ।
नमोस्तु सोमामृत सोदरायै नमोस्तु नारायण वल्लभायै।।12।।
सम्पतकराणि सकलेन्द्रिय नन्दानि साम्राज्यदान विभवानि सरोरूहाक्षि।
त्व द्वंदनानि दुरिता हरणाद्यतानि मामेव मातर निशं कलयन्तु नान्यम्।।13।।
यत्कटाक्षसमुपासना विधि: सेवकस्य कलार्थ सम्पद:।
संतनोति वचनांगमानसंसत्वां मुरारिहृदयेश्वरीं भजे।।14।।
सरसिजनिलये सरोज हस्ते धवलमांशुकगन्धमाल्यशोभे।
भगवति हरिवल्लभे मनोज्ञे त्रिभुवनभूतिकरि प्रसीद मह्यम्।।15।।
दग्धिस्तिमि: कनकुंभमुखा व सृष्टिस्वर्वाहिनी विमलचारू जल प्लुतांगीम।
प्रातर्नमामि जगतां जननीमशेष लोकाधिनाथ गृहिणी ममृताब्धिपुत्रीम्।।16।।
कमले कमलाक्षवल्लभे त्वं करुणापूरतरां गतैरपाड़ंगै:।
अवलोकय माम किंचनानां प्रथमं पात्रमकृत्रिमं दयाया : ।।17।।
स्तुवन्ति ये स्तुतिभिर भूमिरन्वहं त्रयीमयीं त्रिभुवनमातरं रमाम्।
गुणाधिका गुरुतरभाग्यभागिनो भवन्ति ते बुधभाविताया:।।18।।
।। इति श्री कनकधारा स्तोत्रं सम्पूर्णम् ।। 

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