पं विजय शंकर मेहता
धार्मिक अनुष्ठानों में कितना प्रदर्शन, कितना पाखंड और कितना परमात्मा है यह ढूंढना अब मुश्किल हो गया है। आज जिस धार्मिक आयोजन में जाओ शोर नजर आता है। लेकिन जो आज हो रहा है वो नई बात नहीं है। पहले भी ऐसा होता रहा है। श्रीरामजी के राजतिलक का जो आयोजन था इसका वर्णन इस प्रकार किया गया है- नभ दुंदुभीं बाजहिं बिपुल गंधर्ब किंनर गावहीं। नाचहिं अपछरा बृंद परमानंद सुर मुनि पावहीं॥
आकाश में बहुत-से नगाड़े बज रहे हैं। गंधर्व और किन्नर गा रहे हैं। अप्सराओं के झुंड के झुंड नाच रहे हैं। देवता और मुनि परमानंद प्राप्त कर रहे हैं। अब यहां बजाना, गाना और नाचना तीनों हो रहा है। यह आज भी होता है। कई बार तो इसी के लिए आयोजन किए जाते हैं। लेकिन आगे दो बातें लिखी हैं- देवता और मुनि परमानंद प्राप्त कर रहे हैं।
अब हम ऐसे आयोजनों को बंद तो नहीं कर सकते। यह लोगों की रुचि में शामिल हो गया है। लेकिन हम एक काम करें- अपने आपको देवता व मुनि बना लें और आनंद उठा लें, बजाय इनकी आलोचना करने के। देवता बनते हैं पुण्य से। जब भी हम ऐसे आयोजनों में जाएं पुण्य की दृष्टि से जाएं। अच्छे काम को देखें।
मुनि का मतलब होता है जो मौन साध ले। चाहे कितना ही शोर हो, ऐसे आयोजनों में अपने भीतर के मौन को साधा जा सकता है। तभी हम आनंद ले पाएंगे। जिनको नाचना है, गाना है, बजाना है वो करें, पर हमारे आनंद में कोई कमी नहीं होगी।