हिमशिखर धर्म डेस्क
हर जीवित व्यक्ति के अंदर आत्मा मौजूद रहती है। जैसे ही यह शरीर से निकल जाती है शरीर निर्जीव हो जाता है यानी आत्मा एक जीव है जिसके चले जाने से शरीर जीव विहीन हो जाता है। शरीर से जुड़े सारे नाते रिश्ते सब खत्म हो जाते हैं। गीता में श्री कृष्ण कहते हैं, मैं हर व्यक्ति में आत्मा रूप में मौजूद हूं, यानी यह आत्मा ईश्वर का स्वरूप है।
गीता में श्रीकृष्ण ने आत्मा को अमर और अविनाशी बताया है जिसे न शस्त्र काट सकता है, पानी इसे गला नहीं सकता, अग्नि इसे जला नहीं सकती, वायु इसे सोख नहीं सकती। दरअसल आत्मा एक ऐसा रहस्य है जिसका रहस्य जीतना सुलझाया गया है, यह उतना ही उलझता गया है। फिर भी इसे जानने का रोमांच मन में बना ही रहता है।
आत्मा प्रकाश की तरह है। यानी बिजली का बल्ब व्यक्ति है और लैम्प से निकलने वाली बिजली की किरण मनोभाव है। अंग्रेजी में “Spirit of the soul” (आत्मा की भावना) अभिव्यक्ति का प्रयोग किया जाता है और इस अभिव्यक्ति में यह स्पष्ट है कि यह भावना आत्मा से उद्भूत (उत्पन्न) होती है। यह ‘भावना’ गुण उत्पन्न करती है जैसे स्पष्ट या अस्पष्ट, मजबूत या कमजोर, भ्रमित, सुन्दर, सृजनात्मक, शिथिल आदि। किन्तु आत्मा पूरी तरह से निर्गुण है, जिसकी तुलना बादल रहित आकाश या बिना लहरों के जल से की जा सकती है। आकाश में बादल, सागर में लहरें, पर्दे पर दिखाई जा रही फिल्म सब गति का भ्रम हैं। अधिकांशत: हमारी व्यक्तिगत चेतना इस गति से मेल खाती है और ”आत्मा” की पृष्ठभूमि से अनभिज्ञ बनी रहती है।
एक लैम्प के प्रतीकात्मक चित्र से, हम व्यक्तिगत चेतना की तुलना लैम्प आवरण से कर सकते हैं। कितना प्रकाश लैम्प से चारों ओर फैलेगा यह निर्भर करता है प्रकाश बल्ब कितनी ऊर्जा प्राप्त करने की क्षमता रखता है। लैम्प आवरण के गुण में भी यही बात है। लैम्प आवरण से बाहर फैलने वाले प्रकाश की मात्रा इस बात पर निर्भर करती है कि आवरण कितना स्पष्ट और पारदर्शी है या मिट्टी- धूल भरा और गंदा है।
भावना और चेतना स्व नहीं है, अपितु स्व से निकलने वाले अंश हैं, जिससे वे प्रतिबिम्बित होते हैं। आत्मा का प्रकाश सदैव अपरिवर्तित, स्पन्दन युक्त और शुद्ध रहता है। हमारी आत्मा का प्रकाश कितने विस्तार तक बाहर फैल सकता है, हमारी चेतना के गुण पर निर्भर करता है। हमारे विचार, भावनाएं, गुण और कर्म इसको रूप देते हैं। नकारात्मक गुण और अज्ञान हमारी चमक को (Phanomen) अंधकारमय कर देते हैं। दैवीय गुण जैसे ज्ञान, बुद्धि और प्रेम इनको चमका देते हैं। हमारी उच्चतर चेतना जितनी विकसित होती है उतना ही स्पष्ट, शुद्ध और पारदर्शी किरणों का आत्मा से विकिरण होता है। यदि हमारी चेतना पूरी तरह शुद्ध और निष्कलंक होती है, तो आत्मा से प्रकाश विकिरण पूर्ण सौन्दर्य और उज्ज्वलता से होता है और तब हम ज्ञान प्राप्ति या ईश्वरानुभूति की चर्चा करते हैं। साधु-संत (धार्मिक व्यक्ति) पूर्ण रूपेण शुद्ध और स्पष्ट होते हैं और वे ईश्वर के सत्य माध्यम बनते हैं। वे प्रकाश, प्रेम, दया, बुद्धि और स्पष्टता का उपदेश देते हैं – एक क्षण के लिए सन्तों के प्रभापुंज का विचार करें। तथापि आत्मा पर पर्दा डालने वाले कर्मों और अज्ञानों की कई पर्तें होती हैं, तब यह दिव्य प्रकाश उनको पार नहीं कर सकता।
आत्मा, हमारा आन्तरिक स्व, विश्व-आत्मा का सार है, जिसकी प्रकृति महा आनन्द है। अत: विश्व-आत्मा के एक अंश रूप में हर एक व्यक्ति का आन्तरिक सार आनन्द-मात्र आनन्द ही है। मानव शरीर, इन्द्रियों के अवयव, बुद्धि और मन ये सब आत्मा के उपकरण हैं।
मानव की मृत्यु होने के बाद उसकी देह पंच तत्वों में मिल जाती है। लेकिन उसके कर्मों का लेखा जोखा आत्मा के माध्यम से आगे भी चलता रहता है। इसी तरह पिछले जन्मों के कर्म हमेशा आपके अस्तित्व का हिस्सा रहते हैं। जिस तरह आप बैंक में पैसे जमा करने या निकालने के बाद या निकालकर भूल जाते हैं। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि बैंक डिटेल्स में आपके लेन-देन की जानकारी नहीं रहती। जन्मों की परिभाषा भी ऐसी ही है। हम जन्म लेते हैं। कर्म करते हैं और अगले जन्म में उन पिछले कर्मों को भूल जाते हैं। लेकिन हमारे वही कर्म हमारी आत्मा का हिस्सा होते हैं। जिस तरह कम्प्यूटर की चिप में जानकारी फीड हो जाती है वैसे ही कर्मों की किताब में आपके कर्म जुड़ते जा रहे हैं।
अगर आप अपने नजरअंदाज करने की आदत की वजह से उस चिप का प्रयोग नहीं कर पा रहे हैं तो ऐसा नहीं है कि उसमें दी गई जानकारी समाप्त हो चुकी है। ऐसे ही अगर आपको अपने कर्म याद नहीं तो इसका अर्थ यह नहीं कि आप अपने पूर्व जन्मों के कर्मों से मुक्त है। कर्म का सिद्धांत यही कहता है कि आपको अपने अच्छे-बुरे सभी कर्मों का परिणाम भुगतना पड़ता है।
या तो इस जन्म में या फिर आने वाले जन्मों में। इसलिए अपने पिछले जन्म के कर्मों के परिणाम भुगतने के लिए व्यक्ति को हमेशा तैयार रहना चाहिए। कर्मों के चक्कर में ईश्वर का कोई लेना देना नहीं। हम जैसा करते हैं वैसा भोगते हैं और यह सिलसिला तब तक चलता है जब तक कि हम अपने पिछले सभी जन्मों के परिणाम भुगत नहीं लेते। ।