हिमशिखर खबर
श्रीशौनकजी ने कहा–सूतनन्दन ! राजा जनमेजय ने उत्तंककी बात सुनकर अपने पिता परीक्षित् की मृत्यु के सम्बन्ध में जो पूछताछ की थी, उसका आप विस्तार से वर्णन कीजिये।
उग्रश्रवाजी ने कहा–राजा जनमेजय ने अपने मन्त्रियों से पूछा कि ‘मेरे पिता के जीवन में कौन-सी घटना घटित हुई थी ? उनकी मृत्यु किस प्रकार हुई थी ? मैं उनकी मृत्यु का वृत्तान्त सुनकर वही करूँगा, जिससे जगत् का लाभ हो ?’
मन्त्रियों ने कहा–महाराज! आपके पिता बड़े धर्मात्मा, उदार और प्रजापालक थे। हम बहुत संक्षेप से उनका चरित्र आपको सुनाते हैं। आपके धर्मज्ञ पिता मूर्तिमान् धर्म थे। उन्होंने धर्म के अनुसार अपने कर्तव्य पालन में संलग्न चारों वर्णों की प्रजा की रक्षा की थी। उनका पराक्रम अतुलनीय था। वे सारी पृथ्वी की ही रक्षा करते थे। न उनका कोई द्वेषी था और न वे ही किसी से द्वेष करते थे। वे सबके प्रति समान दृष्टि रखते थे। उनके राज्य में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र–सभी प्रसन्नता के साथ अपने अपने कर्म में लगे रहते थे। विधवा, अनाथ, लँगड़े, लूले और गरीबों के खान-पान का भार उन्होंने अपने ऊपर ले रखा था। उनकी प्रजा हृष्ट-पुष्ट रहती थी। वे बड़े ही श्रीमान् और सत्यवादी थे। उन्होंने कृपाचार्य से धनुर्वेद की शिक्षा प्राप्त की थी। भगवान् श्रीकृष्ण आपके पिता के प्रति बड़ा प्रेम रखते थे। विशेष क्या, वे सभी के प्रेमपात्र थे। कुरुवंश के परिक्षीण होने पर उनका जन्म हुआ था, इसी से उनका नाम परीक्षित् हुआ। वे राजधर्म और अर्थशास्त्र में बड़े कुशल थे। वे बड़े बुद्धिमान्, धर्मसेवी, जितेन्द्रिय और नीतिनिपुण थे। उन्होंने साठ वर्ष तक प्रजा का पालन किया। इसके बाद सारी प्रजा को दुःखी करके वे परलोक सिधार गये। अब यह राज्य आपको प्राप्त हुआ है।
जनमेजय ने कहा–मन्त्रियो ! आप लोगों ने मेरे प्रश्न का उत्तर तो दिया ही नहीं। हमारे वंश के सभी राजा अपने पूर्वजों के सदाचार का ध्यान रखकर प्रजा के हितैषी और प्रिय होते आये हैं। मैं तो अपने पिता की मृत्यु का कारण जानना चाहता हूँ।
मन्त्रियों ने कहा—महाराज! आपके प्रजापालक पिता महाराज पाण्डु की तरह ही शिकार के प्रेमी थे। उन्होंने सारा राजकार्य हम लोगों पर छोड़ रखा था। एक बार वे शिकार खेलने के लिये वन में गये हुए थे। उन्होंने बाण से एक हरिन को मारा और उसके भागने पर उसका पीछा किया। वे अकेले ही पैदल बहुत दूर तक वन में हरिन को ढूँढ़ते हुए चले गये, परन्तु उसे पा नहीं सके। वे साठ वर्ष के हो चुके थे, इसलिये थक गये और उन्हें भूख भी लग गयी।
उसी समय उन्हें एक मुनि का दर्शन हुआ। वे मौनी थे। उन्होंने उन्हीं से प्रश्न किया। परन्तु वे कुछ नहीं बोले। उस समय राजा भूखे और थके-माँदे थे, इसलिये मुनि को कुछ न बोलते देखकर क्रोधित हो गये। उन्होंने यह नहीं जाना कि ये मौनी हैं। इसलिये उनका तिरस्कार करने के लिये धनुष की नोक से मरा साँप उठाकर उनके कंधे पर डाल दिया। मौनी मुनि ने राजा के इस कृत्य पर भला-बुरा कुछ नहीं कहा। वे चुपचाप शान्त-भाव से बैठे रहे। राजा ज्यों-के-त्यों वहाँ से उलटे पाँव राजधानी में लौट आये।
मौनी ऋषि शमीक के पुत्र का नाम था शृंगी। वह बड़ा तेजस्वी और शक्तिशाली था। जब महातेजस्वी शृंगी ने अपने सखा के मुँह से यह बात सुनी कि राजा परीक्षित् ने मौन और निश्चल अवस्था में मेरे पिता का तिरस्कार किया है तो वह क्रोध से आग बबूला हो गया। उसने हाथ में जल लेकर आपके पिता को शाप दिया–’जिसने मेरे निरपराध पिता के कंधे पर मरा हुआ साँप डाल दिया, उस दुष्ट को तक्षक नाग क्रोध करके अपने विष से सात दिन के भीतर ही जला देगा। लोग मेरी तपस्या का बल देखें।’
इस प्रकार शाप देकर शृंगी अपने पिता के पास गया और सारी बात कह सुनायी। शमीक मुनि ने यह सब सुनकर अच्छा नहीं समझा तथा आपके पिता के पास अपने शीलवान् एवं गुणी शिष्य गौरमुख को भेजा। गौरमुख ने आकर आपके पिता से कहा–’हमारे गुरुदेव ने आपके लिये यह सन्देश भेजा है कि राजन् ! मेरे पुत्र ने आपको शाप दे दिया है, आप सावधान हो जायँ। तक्षक अपने विष से सात दिन के भीतर ही आपको जला देगा।’ आपके पिता सावधान हो गये।
सातवें दिन जब तक्षक आ रहा था, तब उसने काश्यप नामक ब्राह्मण को देखा। उसने पूछा, ‘ब्राह्मण देवता ! आप इतनी शीघ्रता से कहाँ जा रहे हैं और क्या करना चाहते हैं?’
काश्यप ने कहा–’जहाँ आज राजा परीक्षित् को तक्षक साँप जलावेगा, वहीं जा रहा हूँ। मैं उन्हें तुरन्त जीवित कर दूँगा। मेरे पहुँच जाने पर तो सर्प उन्हें जला भी नहीं सकेगा।’
तक्षक ने कहा–’मैं ही तक्षक हूँ। आप मेरे डँसने के बाद उस राजा को क्यों जीवित करना चाहते हैं? मेरी शक्ति देखिये, मेरे डँसने के बाद आप उसे जीवित नहीं कर सकेंगे।’ यह कहकर तक्षक ने एक वृक्ष को डँस लिया। उसी क्षण वह वृक्ष जलकर खाक हो गया।
काश्यप ब्राह्मण ने अपनी विद्या के बल से उस वृक्ष को उसी समय हरा-भरा कर दिया। अब तक्षक ब्राह्मण देवता को प्रलोभन देने लगा। उसने कहा, ‘जो चाहो, मुझसे ले लो।’
ब्राह्मण ने कहा–’मैं तो धन के लिये वहाँ जा रहा हूँ।’ तक्षक ने कहा, ‘तुम उस राजा से जितना धन लेना चाहते हो, मुझसे ले लो और यहीं से लौट जाओ।’
तक्षक के ऐसा कहने पर काश्यप ब्राह्मण मुँहमाँगा धन लेकर लौट गये। उसके बाद तक्षक छल से आया और उसने आपके महल में बैठे एवं सावधान धार्मिक पिता को विष की आग से भस्म कर दिया। तदनन्तर आपका राज्याभिषेक सम्पन्न हुआ। यह कथा बड़ी दुःखद है। फिर भी आपकी आज्ञा से हमने सब सुना दिया है। तक्षक ने आपके पिता को डँसा है और उत्तंक ऋषि को भी बहुत परेशान किया है। आप जैसा उचित समझें, करें।
जनमेजय ने कहा–मन्त्रियो ! तक्षक के डँसने से वृक्ष का राख की ढेरी हो जाना और फिर उसका हरा हो जाना बड़े आश्चर्य की बात है। यह बात आप लोगों से किसने कही? अवश्य ही तक्षक ने बड़ा अनर्थ किया। यदि वह ब्राह्मण को धन देकर न लौटा देता तो काश्यप मेरे पिता को भी जीवित कर देते। अच्छा, मैं उसको इसका दण्ड दूँगा। पहले आप लोग इस कथा का मूल तो बतलाइये।
मन्त्रियों ने कहा–महाराज! तक्षक ने जिस वृक्ष को डँसा था, उस पर पहले से ही एक मनुष्य सूखी लकड़ियों के लिये चढ़ा हुआ था। यह बात तक्षक और काश्यप दोनों में से किसी को मालूम न थी। तक्षक के डँसने पर वृक्ष के साथ वह मनुष्य भी भस्म हो गया था। काश्यप के मन्त्र प्रभाव से वृक्ष के साथ वह भी जीवित हो गया। तक्षक और काश्यप की बातचीत उसी ने सुनी थी और वहाँ से आकर हम लोगों को सूचित की थी। अब आप हम लोगों का देखा-सुना जानकर जो उचित हो कीजिये।