हिमशिखर धर्म डेस्क
काका हरिओम्
4 जुलाई 1902 के दिन वेदान्त केसरी स्वामी विवेकानन्द ने अपने पार्थिव शरीर का परित्याग किया था. उस समय उनकी आयु थी मात्र 39 वर्ष. इसे संसार की भाषा में मरने की उम्र नहीं कह सकते हैं. लेकिन महापुरुष जानते हैं कि उन्हें कब अपनी लीलाओं को समेटना है.
स्वामी जी को भी इस बात का अंदाजा हो गया था. तभी वह अपने गुरुदेव की समाधि की ओर तकते तकते गंभीर हो जाते थे, ऐसा प्रतीत होता था मानो निर्विकिल्प की स्थिति में प्रवेश कर गए हों.
उनके गुरुभाई इस परिवर्तन से सकते में थे. वह सोच नहीं पा रहे थे कि सिंह की तरह दहाड़ने वाला केसरी कैसे मौन हो गया है. गुरुदेव का नाम सुनकर उनकी आंखों की कोरें द्रवित हो जाती थीं. ऐसा भावुक तो उन्होंने अपने गुरुभाई को कभी नहीं देखा था. लेकिन एकदिन उन्हें तब भावी का अनुमान हो गया जब उन्होंने कहा,’अब मैं मृत्यु की तैयारी रहा हूं. अब बस बहुत हुआ. मैंने महाकाली की आज्ञा का यथा- शक्ति पालन किया.’
लगता है उनके इस प्रकार महाप्रयाण का कारण था उनके शरीर का बुरी तरह अस्वस्थ होना तथा लोगों से मिलने वाली निराशा. एक संन्यासी को सबसे ज्यादा पीडा तब होती है जब वह अपने अनुयायियों और प्रशंसकों की कथनी करनी में अन्तर देखता है.
उस रात उनकी तबीयत ज्यादा खराब थी. आंखें मूंदे लेटे थे. सेवक एकटक उनकी माला के घूमते मनकों को परख रहा था. तभी उनकी माला गिर गई. वह समझ गया क्या घटा है. सेवक ने सबको बुलाया. लेकिन पंछी महाकाश की ऊंचाइयों में उड़कर कहीं अदृश्य में लुप्त हो गया था. ॐ के पवित्र नाद से पूरा वातावरण ब्रह्ममय हो गया. पूर्व का सूर्य आदित्य रूप ब्रह्म में समा गया था.