प्रो. गोविन्द सिंह
(जाने माने स्तंभकार)
समाज में हर रोज नई-नई विकृतियां जन्म लेती जा रही हैं। चोरी-डकैती, हत्या, लूटमारी जैसी बीमारियों के अलावा छेड़-छाड़ और दुष्कर्म की खबरें पढ़कर हर सुबह कोफ्त होती है। पश्चिमी देशों में भी ये बीमारियां हैं लेकिन वहां के लोगों ने मजबूत नागरिक कानून बनाकर इन पर नकेल कस ली है। लेकिन अपने देश में ये सुरसा के मुंह की तरह रोज-ब-रोज फैलती जा रही है। आखिर क्यों इन बीमारियों से ग्रस्त हो गया अपना देश? क्या पहले भी ऐसा ही था? यदि जीवन की समस्याओं से निबटने का यही तरीका हमारे पूर्वजों ने भी अपनाया होता तो क्या हमारी सभ्यता बच पाती ? शायद नहीं।
आज भले ही हम जिस भी हालते में हों, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि हमारी सभ्यता कभी उन्नत नहीं रही थी। जिस तरह की व्यवस्थाएं समाज को चलाने के लिए बनाई गयी थीं, वे किसी पिछड़े समाज में नहीं हो सकती थीं।
सोलह संस्कारों की बात छोड़ भी दें तो मनुष्य जीवन को अनुशासित और तदन्तर सुखमय बनाने के लिए वर्णाश्रम व्यवस्था की गयी थी। जीवन लक्ष्यहीन न गुजर जाए, इसलिए उसके चार पुरुषार्थ निर्धारित किए गए थे। इन व्यवस्थाओं के चलते समाज में विकृति आने की आशंका उत्तरोत्तर कम हो जाती थी। हां, यह जरूर है कि इन्हें लागू करने के लिए अनुशासन की दरकार होती थी। बिना अनुशासन के कुछ भी संभव नहीं है। आज अमेरिका आगे है तो उसके पीछे भी अनुशासन ही है। चार दिन अमरीकी लोग अनुशासन का पालन करना छोड़ दें तो सब कुछ उलट-पुलट हो जाएगा।
पहले वर्णाश्रम व्यवस्था को लें। समाज की व्यवस्था को ठीक से चलाने के लिए चार वर्ण बनाए गए थे। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। आज भले ही यह व्यवस्था विकृत हो गयी हो, लेकिन अपने मूल स्वरूप में यह एक आदर्श व्यवस्था थी।
ब्राह्मण का मतलब विद्या अर्थात समाज के लिए हित-चिंतन करने वाले। इसी तरह समाज व्यवस्था की रखवाली करने वाले क्षत्रिय हुए। समाज-व्यवस्था के आंतरिक कारोबार को करने वाले वैश्य हुए तो समाज की सेवा करने वाले शुद्र हुए। यह विभाजन गुणों और कर्मों के आधार पर था, पैत्रिक आधार पर नहीं। अर्थात ब्राह्मण बेटा भी ब्राह्मण ही बने, यह जरूरी नहीं। जिसके जैसे गुण होंगे, उसे वैसा ही काम मिलेगा। यानी शुद्र का पुत्र भी ब्राह्मण या क्षत्रिय बन सकता था। जैसे आज फौज में भरती होते वक्त व्यक्ति की जाति नहीं, कर्म और पात्रता देखी जाती है। हमारे एक दोस्त तीन साल के लिए चीन गए तो बोले कि जिस होटल में उन्हें टिकाया गया था, उसके सबसे बड़े अधिकारी की पत्नी उसके कमरे में – पोछा करती थी। यानी कर्म के आधार पर भेदभाव भी नहीं था। न ही किसी काम को छोटा या बड़ा समझा जाता था। मन और शरीर के कार्यों को अलग-अलग कोटियों में जरूर रखा गया था, लेकिन उनमें भेदभाव नहीं था। जब तक यह व्यवस्था चली, तब तक समाज व्यवस्था बहुत अच्छी चल रही थी। लेकिन धीरे-धीरे पेशे के अनुरूप कुछ विशेषाधिकार भी मिलने लगे। खासकर ब्राह्मण और क्षत्रिय वर्णों को श्रेष्ठ समझा जाने लगा। इससे हुआ यह कि मानव मन में मोह घर करने लगा। ब्राह्मण को लगा कि क्यों न उसका बेटा भी ब्राह्मण बनकर उसी की तरह समाज से मिले विशेषाधिकारों का उपभोग करें। क्षत्रिय को भी लगने लगा कि उसकी सारी मेहनत का फल क्यों किसी और का बेटा भोगे?
दूसरी व्यवस्था आश्रम की थी। गया है। कोई भा मनुष्य का जीवन चार आश्रमों में विभाजित था। ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास। जीवन काल को चार खण्डों में बांट कर समाज को बहुत सी बुराइयों से मुक्त कर दिया। हर आश्रम के बाद यह तय था कि उसे तरक्की करते हुए अगले आश्रम में पहुंचना है। और हर आश्रम के दायित्य भी निश्चित थे। ब्रह्मचर्य में व्यक्ति को शिक्षा ग्रहण में ध्यान केन्द्रित करना है, तो गृहस्थ में परिवार बनाने में पूरा ध्यान लगाना है। इसी तरह वानप्रस्थ में निस्वार्थ कर्म करने और संन्यास अवस्था में केवल आत्मा-परमात्मा का चिंतन बताया गया है।
यदि अनुशासन के साथ इन चार आश्रमों का पालन किया जाए तो गड़बड़ी हो ही नहीं सकती। आधुनिक काल में भी हमने रिटायरमेंट की आयु तो निर्धारित कर दी, लेकिन उसके बाद वह क्या करे, उसे नहीं बताया। लिहाजा वह कुंठित होने लगा। किसी का ब्रह्मचर्य 30-35 साल तक चलता रहता है तो किसी का गृहस्थ 75 तक भी पूरा नहीं होता। ऐसे में कैसे विकार नहीं पैदा होंगे?
सबसे बड़ी व्यवस्था चार पुरुषार्थ की थी। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। धर्म अर्थात जिम्मेदारी अर्थात अपने से अधिक दूसरे के हित का ध्यान रखना। ‘परहित सरिस धर्म नहीं भाई’ यह सबसे कठिन है। लेकिन इसे पहले नंबर पर रखा गया है। अर्थ और काम में विचलन की आशंका सबसे ज्यादा है, इसलिए उन सबके साथ भी धर्म को जोड़ दिया गया है।
कोई भी काम धर्म को लक्ष्य में रख कर ही किया जाता था। अर्थ का मतलब पैसा कमाना लेकिन उसमें भी परहित का ध्यान रखना अनिवार्य था। दूसरे को नुकसान पहुंचाकर आप धनोपार्जन नहीं कर सकते। इसी तरह काम यानी प्रेम यानी यौन सम्बन्ध को भी धर्म से नत्थी कर दिया गया। क्योंकि यौन को खुला छोड़ दिया तो समाज में उच्छृंखलता फैल जायेगी। समाज को जोड़े रखना है तो हर कर्म को धर्म के अनुशासन में बांध दो। अंत में निस्वार्थ मोक्ष था। यानी हरेक पुरुषार्थ के पीछे एक मकसद थे और मोक्ष सभी कर्मों की पूर्णाहुति था। यदि सभी काम धर्म के साथ करोगे तो मोक्ष मिलेगा। मोक्ष नहीं मिलेगा तो क्या होगा। उस स्थिति की भी व्याख्या थी। मनुष्य को मोक्ष के फायदे और मोक्ष न मिलने के नुकसान समझाए गए थे। लिहाजा मनुष्य क्यों अपने अगले जन्म को खराब करे? वह किसी भी गलत काम को करने से पहले हजार बार सोचता था। ऐसा नहीं हो सकता कि तब समाज मैं समस्याएं नहीं थीं। समस्याएं तब भी होती होंगी। लेकिन समाज के अधिकांश हिस्से में अनुशासन था। हर व्यक्ति के जीवन का कोई न कोई मकसद था। इसलिए वह यों ही किसी को तंग नहीं करता था। समाज से प्राप्त अधिकार और जिम्मेदारी को वह यों ही गंवाना नहीं चाहता था। आज की सबसे बड़ी समस्या यह है कि हमें पता ही नहीं कि हम क्या हैं? हमारे जीवन का मकसद क्या है? देश-समाज के प्रति हमारी क्या जिम्मेदारी है? जब तक हर नागरिक को स्वतःस्फूर्त तरीके से अपनी इन जिम्मेदारियों का एहसास नहीं होगा, तब तक हम और हमारा समाज विकृतियों से कैसे मुक्त हो सकेगा ?