सुप्रभातम् : भगवान श्रीकृष्ण ने भालका तीर्थ में किया था लीला संवरण

गुजरात के सौराष्ट्र में भालका तीर्थ द्वापर युग के सबसे बड़े नायक, संसार को गीता का ज्ञान और जीवन का सत्य बताने वाले भगवान श्रीकृष्ण और उनके आखिरी लम्हों की गवाही देता है। इसी पवित्र पर सृष्टि के पालनहार भगवान श्री कृष्ण ने लीला संवरण कर भूलोक से वैकुंठ लोक गमन किया था।

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हिमशिखर धर्म डेस्क

गुजरात के सौराष्ट्र में भालका तीर्थ द्वादश लिंगों में से एक सोमनाथ मंदिर से महज 5 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इस मंदिर में स्थापित प्रतिमा भगवान श्री कृष्ण के आखिरी समय को प्रदर्शित करती है। ऐसा माना जाता है कि भगवान श्री कृष्ण इसी पावन जगह पर लीला संवरण कर अपने वैकुंठ लोक चले गए ।

जिस बहलिये ने भगवान कृष्ण को तीर मारा था, उस बहेलिए की प्रतिमा भी ठीक कृष्ण जी की मूर्ति के सामने हाथ जोड़़े हुए विराजित है, मानों वह अभी भी उनसे क्षमा मांग रहा हो।

भगवान श्रीकृष्ण तो सृष्टि के पालनहार हैं, संसार को भले वो अपने इशारों पर चलाते हों लेकिन वे बखूबी जानते थे कि अब इस दुनिया से लीला समेटने का समय आ गया है। तभी तो तीर चलाने वाले बहेलिये को उन्होंने माफ कर दिया।

लोक कथाओं के अनुसार महाभारत युद्ध खत्म होने के बाद कृष्ण सोमनाथ मंदिर से करीब सात किलोमीटर दूर वैरावल की इस जगह पर विश्राम करने आ गए।

  • श्रीकृष्ण ध्यानमग्न मुद्रा में लेटे हुए थे तभी जरा नाम के भील को कुछ चमकता हुआ नजर आया। उसे लगा कि यह किसी मृग की आंख है और बस उस ओर तीर छोड़ दिया, जो सीधे कृष्ण के बाएं पैर में जा धंसा।
  • जब जरा करीब पहुंचा तो देखकर भगवान से इसकी माफी मांगने लगा। जिसे उसने मृग की आंख समझा था, वह कृष्ण के बाएं पैर का पदम था, जो चमक रहा था। भील जरा को समझाते हुए कृष्ण ने कहा कि क्यों व्यर्थ ही विलाप कर रहे हो, जो भी हुआ वो नियति है।
  • बाण लगने से घायल भगवान कृष्ण भालका से थोड़ी दूर पर स्थित हिरण नदी के किनारे पहुंचे। कहा जाता है कि उसी जगह पर भगवान वापस अपने लोक चले गए।लेकिन आज भी इस जगह पर भगवान के चरणों के निशान मौजूद हैं, जो दुनियाभर में देहोत्सर्ग तीर्थ के नाम से मशहूर है।

ऐसा कहा जाता है इस मंदिर में सच्चे मन से मांगी गई हर मुराद कभी भी अनसुनी नहीं होती। अपने भक्तों का दुख दर्द दूर करने के लिए ही अवतार लेने वाले भगवान ने इसी जगह से भले ही लीला संवरण किया था लेकिन उनके होने का एहसास आज भी भक्तों को होता है। जिसका सबूत मंदिर के परिसर में मौजूद 5 हजार साल पुराना पीपल का वृक्ष है, जो अब भी हरा ही है।

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