काका हरिओम
कथाएं जहां जिज्ञासा उत्पन्न करती हैं वहीं दर्शन के गूढ़ रहस्यों को भी उजागर करती हैं। यही खासियत उन प्रतीकों की भी है, जिनका प्रयोग भारत के महान ऋषियों ने जगह-जगह किया है।
शक्ति के विभिन्न नाम रूपों के साथ भी ऐसा ही है। नवदुर्गा की कथाएं और दश महाविद्या के विलक्षण रूपों में भी शाक्त परंपरा के रहस्य छिपे हुए हैं।
दुर्गा सप्तशती में कथा आती है कि देवासुर संग्राम में जब रक्तबीज को हराना अर्थात् उसका वध करना असम्भव-सा हो गया तो मां क्रोधित हो उठीं। रक्तबीज के शरीर से निकलने वाली खून की प्रत्येक बूंद उस राक्षस के बराबर शक्तिशाली शरीर के रूप में परिवर्तित हो रही थी। ऐसा ही उसे वर प्राप्त था।
यह देखकर मां ने निश्चय किया कि रक्तबीज को रक्त विहीन कर दिया जाए। उनका रंग काला हो गया। इसके बाद वह लोक में महाकाली के रूप में प्रसिद्ध हो गईं। उन्होंने रक्तबीज को रक्तहीन कर दिया। इस प्रकार रक्तबीज का वध महाकाली ने किया। देवता निर्भय हो गए। कथा काफी विस्तृत है। आइए, इस कथा के संकेत को समझें-
लालसा और वासना का प्रतीक है रक्तबीज। यह कभी खत्म नहीं होती बल्कि बढ़ती है। काला रंग तमोगुण का प्रतीक है। मां ने जब देखा कि लोहे को लोहे से ही काटा जा सकता है, तो वह तमोगुण से युक्त हो गईं। मां को अपनी संतान की रक्षा के लिए बहुत कुछ करना पड़ता है। वह सौम्य से क्रूरतम भी बन जाती है।
महाकाली को दी जाने वाली पशु बलि ने भी लोगों को इससे दूर किया है। क्योंकि बहिर्कर्मकांड करना सरल होता है, इसलिए यह समाज में जल्दी प्रचलित हो जाता है। लेकिन यह वैदिक मान्यता के बिल्कुल विपरीत है।
कलकत्ता के काली मंदिर से आने के बाद वहां दी जाने वाली बलि की महात्मा गांधी ने आलोचना की थी। फिर वह कभी काली मंदिर नहीं गए।
महाकाली की उपासना करने से वासनाओं का नाश हो जाता है।
दशमहाविद्या की साधना में शक्ति को श्री विष्णु के दशावतारों के साथ जोड़ कर देखा गया है। इस दृष्टि से महाकाली श्रीकृष्ण की शक्ति हैं। इसीलिए महाकाली को कृष्णा भी कहा जाता है।
मां आप सबकी रक्षा करें। आपके जीवन से आसुरी वृत्तियां सदा सदा के लिए नष्ट हो जाएं।