हिमशिखर धर्म डेस्क
काका हरिओम्
बादशाह राम-स्वामी रामतीर्थ किसी भी तरह की गुलामी के पक्षधर नहीं थे। उन्होंने तो इस बात का उद्घोष किया कि-‘तू एक दिन भी जी शहंशाह बन के जी, मत पुजारी बन स्वयं भगवान बन के जी।’ ऐसा उन्होंने कहा ही नहीं किया भी। अपने शिष्य नारायण स्वामी को उन्होंने अपने से दूर कर दिया। तीन मील दूर कुटिया बना कर रहने का आदेश दिया, क्योंकि वह जान चुके थे कि जीवन लीला को समेटने का समय पास आ गया है।
गुरु का कर्तव्य है कि वह शिष्य को गुरु पद की गरिमा पर स्थापित कर दे। प्रत्येक पिता चाहता है कि उसकी संतानें अपने पैरों पर खड़े होकर चलना सीखें। जो बैसाखियों पर चलाना चाहे अपने शिष्य को जीवन भर, वह कभी भी सद्गुरु नहीं हो सकता। किसी ने सच कहा है कि गुरु और पारस में मौलिक अन्तर होता है, क्योंकि पारस लोहे को सोना बनाता है, पारस नहीं, जबकि गुरु अपने शिष्य को ‘आप समान’ बना देता है।
‘राम राम बनाता है शिष्य नहीं,’ ऐसा कहकर स्वामी रामतीर्थ ने गुरु शिष्य परंपरा को नकारा नहीं है। क्योंकि उनके जीवन को पढ़ने से पता चलता है कि उन्होंने अपने प्रारंभिक गुरु-धन्ना जी को, जिन्हें लोग उनके चमत्कारों के कारण ‘रब जी’ भी कहते थे, लगभग 1200 पत्र लिखे हैं। इनमें उन्होंने जीवन की छोटी-बड़ी घटनाओं का लेखा-जोखा पेश किया है, कुछ भी ऐसा नहीं है, जिसे उन्होंने छुपाया हो। फिर भी एक समय ऐसा भी आया कि उनकी उत्कट जिज्ञासा और वैराग्य की भावना ने उस शिखर पर पहुंचा दिया, जहां पहुंच कर छोटे-बड़े, गुरु-शिष्य आदि का सारा भेद समाप्त हो जाता है। यहां संबंधों का आधार होता है आत्मा, न कि शरीर।
जब राम के पिता ने उनसे मिलने की इच्छा जाहिर की, तो उनका जवाब था, ‘राम से जो भी मिलना चाहता है, राम उसे केन्द्र पर मिलेगा, न कि परिधि पर।’ परिधि पर दूरियां होती हैं, मेर-तेर का भाव होता है जबकि केन्द्र पर जाकर सब समाप्त हो जाता है। यह अद्वैत की परम स्थिति है। यहीं खड़े होकर वह कहते हैं, ‘सब राम के हैं, राम सबका है।’ उपनिषद के ऋषि इसी भाव को ‘सर्वं खल्विदं ब्रह्म’ के रूप में व्यक्त करते हैं।
सरदार पूरण सिंह (हिंदी साहित्य में जो अध्यापक सरदार पूर्ण सिंह के नाम से प्रसिद्ध हैं) से उनका संबंध कुछ वैसा ही था, जैसा श्रीकृष्ण का अर्जुन से था-अर्थात शिष्य भी और मित्र भी। यह भी जरूरी है। यही कारण है कि पूरन जी ने जहां अपने आदर्श पुरुष स्वामी राम के वैराग्य और वेदान्त निष्ठा की चर्चा की है, वहीं उस भाव-रस का भी स्पर्श किया है, जो किसी कवि के हृदय से प्रवाहित होता है-एक बार नहीं, कई बार इन दोनों की परस्पर वार्ता में शिष्य भाव के साथ ही सखा भाव के भी दर्शन होते हैं। इस स्तर के संबंध आज गुरु-शिष्य के बीच देखने को नहीं मिलता। दोनों एक-दूसरे से अपने अन्तर को छुपाने का प्रयास करते दिखते हैं।
कभी जरा एकान्त में बैठकर अपने आप से पूछें कि इस संबंध के स्थापित होने के बाद क्या अपनी जिज्ञासाओं को बेझिझक, बिना किसी डर के हमने अपने गुरु के सामने रखा है? जब तक दोनों के बीच पर्दा है-झीना ही सही, तब तक वह घटित नहीं होता जो होना चाहिए। आज दोनों को इस पवित्र संबंध की गरिमा को समझने की आवश्यकता है। गुरुडम से कल्याण नहीं होता-न गुरु का, न शिष्य का।