हिमशिखर धर्म डेस्क
कलयुग में आसुरी भाव चरम पर है। दिव्यता सुप्त दिखाई पड़ रही है। दिव्यता दैवी शक्ति में होती है, पुरुष को तो अर्जित करनी पड़ती है। विष्णु की दिव्यता लक्ष्मी से है, तो ब्रह्मा की सरस्वती से। स्वयं तो तत्त्व रूप हैं। मूल में अग्नि और सोम का दाम्पत्य सम्बन्ध है, अकेले कभी नहीं रहते। अग्नि को जीवित रहने के लिए सोम-अन्न चाहिए। अन्न को आहूत होने के लिए अन्नाद (अग्नि) की आवश्यकता रहती है। सोम निराकार तत्त्व है, अग्नि साकार। जैसे हमारा शरीर अग्नि है- 37 डिग्री सेन्टिग्रेड। इसके चारों ओर वायुमण्डल का सोम इसके स्वरूप को स्थायी रखता है।
अग्नि में सोम की आहुति भी निमित्त मात्र होती है। वास्तव में यह चिति (चयन) कर्म है। सूर्य सभी पदार्थों के अधिपति हैं। वे ही देवताओं को बुलाने में, चितिकर्म में रक्षा करते हैं। उनके आशीर्वाद से ही आहुति स्वाहुत होती है-प्रतिष्ठायाम् अस्याम् चित्त्याम् अस्याम् आकूत्याम् अस्याम् आशिष्यस्यां देवहूत्यां स्वाहा। (अथर्व 5-5-1)।
अथर्ववैदिक ऋषि प्रार्थना करते हैं कि अग्नि, द्यावापृथिवी, वरुण, मित्र, मरुद्गण, सोम, वायु, सूर्य, चन्द्रमा, इन्द्र, यम, सात पीढ़ी से ऊपर जाकर मिलने वाले पितर, मरे हुए पितर (सपिण्ड), मृतक पितर आदि सभी देव इस वेदोक्त यज्ञ कर्म में, प्रतिष्ठा में, चिति में, संकल्प में, आशीर्वादात्मक कर्म में मेरी रक्षा करें। इस प्रकार प्रजनन यज्ञ कहने को स्थूल क्रिया मात्र है, किन्तु सभी देव, पितर, ऋषि प्राण रूप में सम्मिलित होते हैं। ब्रह्मा सृष्टि रूप में गर्भस्थ होने को, अवतरित होने को उन्मुख हो रहे हैं।
हमारे कायिक, वाचिक, मानसिक सभी तरह के व्यापारों (कत्र्तव्य कर्मों) में एक प्रेरक शक्ति कार्य करती है। यही शक्ति प्राण कहलाती है। प्राण ही देवता है-प्राणो वै देवता। हमारे शरीर में रुधिरादि का संचार करने की प्रेरणा देने वाला प्राण सविता है। वकृत्व शक्ति प्रदाता प्राण सरस्वती, शरीर के रूप बनाने वाला प्राण त्वष्टा, शरीर को बल देने वाला प्राण पूषा है। इस प्रकार शरीर के विभिन्न अंग-प्रत्यंगों के निर्माण तथा संचालन में विविध देव शक्तियों का योग होता है। यहां तत्-तत् देव विशेषों से उनकी शक्तियों को गर्भस्थ शिशु में स्थापित करवाने के लिए प्रार्थना की गई है। पितरों के तीन प्रकार हैं-सात पीढ़ी से ऊपर जाकर मिलने वाले पितर, मरे हुए पितर (सपिण्ड) और मृतक पितर। सात पीढिय़ों के पितृांशों से समन्वित होकर जीव शरीर धारण करता है। यहां पिता तथा उनकी पूर्वज परम्परा के पितृांश ही मूलत: जीव के साथ जुड़ते है, ये मरे हुए पितर (सपिण्ड) हैं। सात पीढिय़ों से पूर्व के पितर भी वंश परम्परा मेें होने से पितर कहे जाते हैं, हालांकि वे प्रत्यक्षत: जीव के साथ नहीं जुड़ते। पुन: परिवार के अन्य संबंधी जैसे चाचा, मामा, ताऊ, आदि भी पितर श्रेणी में गिने जाते हैं। ये मृतक पितर हैं।
इस प्रजनन यज्ञ में देवताओं की भूमिका को बताते हुए अथर्ववेद के पांचवें काण्ड में कहा गया है कि सरस्वती और अश्विनी कुमार तुम्हारे गर्भ को पुष्ट करें। विष्णु देवता योनि को समर्थ करें। त्वष्टा देवता रूपों को बनाएं, प्रजापति गर्भ का सिंचन करें। धाता गर्भ का पोषण करें। अग्निदेव! आप औषधियों, वनस्पतियों और सम्पूर्ण भूतों के गर्भ में हैं, आप यहां मेरे गर्भ को पुष्ट करिए। यजुर्वेद के मंत्र और समिधाओं को जानने वाले अग्नि देव इस यज्ञ में संयुक्त हों। विद्वान सूर्यदेव इस यज्ञ में युक्त होवें। विद्वान इन्द्रदेव इस यज्ञ में संयुक्त हों। भगवान विष्णु तपों के फल को यज्ञ के लिए संयुक्त करें। त्वष्टा देव भली प्रकार ठीक किए रूपों को यज्ञ में संयुक्त करे। सोम देव यज्ञ में संयुक्त होने वाले जलों को संयुक्त करें। चन्द्र देव यज्ञ के अनुरूप वीर्यों को संयुक्त करें।
इस प्रकार इतना तो स्पष्ट है ही कि मानव की देह का निर्माण एक असाधारण प्राकृतिक प्रक्रिया है जिसमें सृष्टि के सभी तत्त्व शामिल रहते हैं। चूंकि यज्ञ से ही आधिदेविक और अध्यात्म का योग होता है, अत: जो भी प्रक्रिया आत्मा के निर्माण में काम आती है, ठीक वैसी ही प्रक्रिया शरीर-आत्मा और शरीर निर्माण में भी काम आती है। मूल में तो यह क्रम ‘प्राण’ का ही विवर्त है। ब्रह्म का प्रथम आवरित स्वरूप अव्यय पुरुष कहलाता है। यही मूल प्राण है जो समस्त विश्व में व्याप्त रहता है। चेतन प्राणियों में यह अध्यात्म कहलाता है। जड़ पदार्थों में वह अधिभूत कहा जाता है और देवताओं अर्थात् इन्द्रिय आदि में रहने वाला अव्यय पुरुष का अंश अधिदेव कहलाता है। देवता और भूत दोनों के उत्पादक प्रजापति में जो अव्यय व्याप्त है वह अधियज्ञ कहा जाता है। गीता में कृष्ण स्वयं को अधियज्ञ कहते हैं-
अधिभूतं क्षरो भाव: पुरुषश्चाधिदैवतम्।
अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर।। (8.4)
अर्थात्-हे देहधारियों में श्रेष्ठ अर्जुन! क्षर भाव अर्थात् नाशवान् पदार्थ को अधिभूत कहते हैं। पुरुष अर्थात् हिरण्यगर्भ अधिदेव हैं और इस देह में अन्तर्यामी रूप से मैं ही अधियज्ञ हूं।
आधिदेविक प्राणों से जिस प्रकार अध्यात्म पुरुष उत्पन्न होता है, उसी प्रकार अग्निष्टोम आदि वैधयज्ञ द्वारा यजमान को देवात्मा स्वरूप में स्थापित किया जाता है। स्वयंभू, परमेष्ठी, सूर्य, चन्द्रमा, पृथ्वी इस पंचपर्वात्मक विश्व के जो प्राण हमारे में आते हैं, उनसे क्रमश: अव्यक्तात्मा, महानात्मा, विज्ञानात्मा, प्रज्ञानात्मा, भूतात्मा इन पांच आत्माओं का स्वरूप बनता है। भूतात्मा शरीर है। प्रज्ञानात्मा सर्वेन्द्रिय नाम का इन्द्रियों का अधिष्ठाता मन है। भूतात्मा पृथ्वी है। प्रज्ञानात्मा चन्द्रमा है। विज्ञानात्मा सूर्य है। महानात्मा परमेष्ठी है। अव्यक्तात्मा स्वयम्भू है। इन पांचों यज्ञात्माओं में से सूर्य, चन्द्रमा तथा पृथ्वी से सम्बद्ध विज्ञानात्मा, प्रज्ञानात्मा और भूतात्मा का ही अध्यात्म में (यानी हमारे शरीर में) प्रत्यक्षत: अनुभव किया जाता हैं। भूतात्मा पार्थिवप्राण है। प्रज्ञानात्मा चान्द्रप्राण है। विज्ञानात्मा सौरप्राण है। इनमें पार्थिव और सौरप्राण दोनों आग्नेय हैं एवं चान्द्रप्राण सौम्य है। पार्थिवप्राण सूर्य की वस्तु है, किन्तु पृथ्वी में व्याप्त रहने के कारण यह पृथ्वी की ही वस्तु कहलाने लगता है। पृथ्वी से निकलने वाले इसी अग्नि को ‘अंगिराग्नि’ कहते हैं। सूर्य से पृथ्वी की ओर आने वाला सौर अग्नि ‘सावित्राग्नि’ कहलाता है। इन दोनों प्राणों से अध्यात्म का निर्माण होता है। तीसरा है आन्तरिक्ष्य चान्द्ररस, यह पार्थिव प्राणयुक्त अन्न में प्रविष्ट होकर रस, रक्तादि आठ अवस्थाओं से शुक्ररूप में परिणत होता हुआ आत्मनिर्माण में उपयुक्त होता है। अन्न में पार्थिव आग्नेय प्राण भी है और चान्द्र सोम भी है। इसी अन्न से शुक्र बनता है। शुक्र ही अध्यात्म का उपादान (आरम्भक) है। इस शुक्र में प्राणरूप से प्रविष्ट पार्थिव और चान्द्ररस से जिस क्षर-आत्मा का स्वरूप बनता है, उसे ही ‘प्रज्ञानात्मा’ कहते हैं। ‘प्रज्ञानात्मा’ में प्रज्ञाभाग चान्द्ररस है और ‘प्राण’ पार्थिव-आग्नेय रस है। इस प्रकार प्रज्ञा और प्राण दोनों के समन्वय से प्रज्ञानात्मा का स्वरूप बनता है। यही कर्मफल भोगता है। जो भोगता है, उसे देवता कहते हैं। जो भोगा जाता है, अन्न है, वह पशु है।
अध्यात्म यज्ञ में आत्मा के प्रज्ञानात्मा-शरीरआत्मा-शरीर तीन भेद होते हैं। इन तीनों ही आत्मा का गर्भाधान यज्ञ में आधान किया जाता है। अध्यात्म में ३३ प्राण हैं-10-10 हाथों-पैरों की अंगुलियां, 2 कान, 2 नाक, 2 आंखें, एक मुख, उपस्थ, गुदा और नाभि। ये 30 प्राण हैं। द्युलोक-अन्तरिक्ष-पृथ्वी से भी एक-एक प्राण आता है। जो सूर्य से आता है वह-प्राण, पृथ्वी से आने वाला प्राण- उदान, अन्तरिक्ष से आने वाला प्राण- व्यान है। ये तीन प्राण ही अध्यात्म का निर्माण करते हैं। जो 33 प्राण इस पुरुष-पशु में हैं, वे ही प्राण मध्यम (अश्व-गजादि) तथा अपर वृक्ष-जड़ आदि में भी रहते हैं। प्रत्येक आत्मा के 11-11 पशु (33) पशु प्राण होते हैं। अत: अध्यात्म यज्ञ की तरह वैधयज्ञ में भी 11 प्रयाज, 11 अनुयाज, 11 उपयाज किए जाते हैं। जो प्राण आत्मा की गति में अनुगत (सहायक) होकर आत्मा का अन्न बनते हैं, उन्हें प्रयाज कहते हैं। जो प्राण शरीरआत्मा की गति में सहायक होकर शरीरआत्मा का अन्न बनते हैं, उन्हें अनुयाज कहते हैं। जो प्राण शरीर की गति में अनुगत होकर शरीर के अन्न बनते हैं, वे उपयाज कहलाते हैं। (गुलाब कोठारी)