सुप्रभातम्: आत्म हत्या का विचार भी पाप है, आत्महत्या के बाद क्या होता है आत्मा का, जानिए खौफनाक सच

मनुष्य के जीवन में ऐसी कई समस्याएं आती है जिनका हल नहीं मिल पाता है और वो पूरी तरह से टूट जाता है। पैसे की तंगी से लेकर रिलेशनशिप प्राब्‍लम या फिर करियर पर आया बड़ा संकट, ऐसी कई विकट समस्याएं होती है जिनका कोई समाधान ना मिलने पर लोगों को एक ही रास्ता नज़र आता है और वो है इस दुनिया को अलविदा बोल देना। खुद की जान लेकर अप्राकृतिक मौत का भागी बनना भले ही लोगों को आसान लगता हो लेकिन यह बहुत ही भयावह होता है। आत्महत्या कर के मनुष्य सभी समस्याओं से मुक्ति तो पा लेता है। शरीर की जिंदगी भले ही खत्‍म हो जाती है, लेकिन आत्‍मा नहीं मरती और उसे बहुत सी यातनाएं सहनी पड़ती है। गरुड़ पुराण में इस बारे में विस्‍तार से बताया गया है।

Uttarakhand

हिमशिखर धर्म डेस्क

आजकल लोगों के अंदर धैर्य खत्म हो गया है। वे विपरीत हालातों से बहुत जल्दी परेशान हो जाते हैं और हर हाल में समस्या का ​जल्द से जल्द निवारण चाहते हैं। स्थितियां उनके अनुरूप न रहें तो या तो डिप्रेशन में चले जाते हैं या आवेश में आकर आत्महत्या कर लेते हैं। लेकिन अगर किसी को लगता है कि आत्महत्या कर लेने से उसका छुटकारा कष्टों से छूट जाएगा, तो वह गलत हैं।

हिन्दू धर्मानुसार मरने के बाद आत्मा की मुख्यतौर पर तीन तरह की गतियां होती हैं- 1.उर्ध्व गति, 2.स्थिर गति और 3.अधोगति। इसे ही अगति और गति में विभाजित किया गया है।
पहली बात तो यह कि आत्महत्या शब्द ही गलत है, लेकिन यह अब प्रचलन में है। आत्मा की किसी भी रीति से हत्या नहीं की जा सकती। हत्या होती है शरीर की। इसे स्वघात या देहहत्या कह सकते हैं। दूसरों की हत्या से ब्रह्म दोष लगता है लेकिन खुद की ही देह की हत्या करना बहुत बड़ा अपराध है। जिस देह ने आपको कितने भी वर्ष तक इस संसार में रहने की जगह दी। संसार को देखने, सुनने और समझने की शक्ति दी। जिस देह के माध्यम से आपने अपनी प्रत्येक इच्‍छाओं की पूर्ति की उस देह की हत्या करना बहुत बड़ा अपराध है।
वैदिक ग्रंथों में आत्मघाती दुष्ट मनुष्यों के बारे में कहा गया है:-
असूर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसावृता।
तास्ते प्रेत्यानिभगच्छन्ति ये के चात्महनो जना:।।
अर्थात: आत्मघाती मनुष्य मृत्यु के बाद अज्ञान और अंधकार से परिपूर्ण, सूर्य के प्रकाश से हीन, असूर्य नामक लोक को गमन कहते हैं।
अधर में लटक जाती आत्मा 
गरूड़ पुराण में जीवन और मृत्‍यु के हर रूप का वर्णन किया गया है। आत्‍महत्‍या को निंदनीय माना जाता है, क्‍योंकि धर्म के अनुसार कई योनियों के बाद मानव जीवन मिलता है ऐसे में उसे व्‍यर्थ गंवा देना मूर्खता और अपराध है।

दरअसल, पुराणों के अनुसार जन्म और मृत्यु प्रकृति द्वारा पूर्वजन्म के आधार पर निर्धारित कर दी जाती है। जैसे किसी मनुष्य की आयु 50 साल निर्धारित की गई है लेकिन अगर वो जीवन से हताश होकर 30 वर्ष की आयु में ही आत्महत्या कर लेता है तो बाकी के 20 साल उसकी आत्मा मुक्ति के लिए भटकती रहती है। ऐसे में अगर उसकी कोई इच्छा अधूरी छूट गई है तो वो उसे पूरा करने के लिए उसकी आत्मा विभिन्न योनियों में भटकती रहती है।

बहुत बड़ा अपराध है आत्महत्या करना

गरुड़ पुराण में कहा गया है कि सुसाइड करना बहुत बड़ा अपराध है क्‍योंकि ऐसी मृत्‍यु के बाद तो व्‍यक्ति की स्थिति और ज्‍यादा खराब हो जाती है। ना तो वह मौत से पहले की तरह अपनों के बीच रह पाता है और ना ही मौत के बाद उसे किसी लोक में कोई जगह मिलती है। ऐसे में उसकी आत्‍मा अधर में ही लटकी रहती है और भटकती रहती है। जब तक कि उस व्‍यक्ति की तय की गई आयु का समय पूरा नहीं होता, तब तक आत्‍मा दूसरे इंसान के रूप में जन्‍म भी नहीं ले पाती है।

अधूरी इच्छा के कारण अतृप्‍त होती है आत्माएं

गरुड़ पुराण के मुताबिक मरने के बाद आमतौर पर आत्‍माओं को जल्द ही शरीर मिल जाता है, लेकिन सुसाइड करने से व्‍यक्ति की आत्‍मा को तब तक दूसरा शरीर नहीं मिलता है, जब तक कि उसकी तय आयु पूरी न हो जाए। साथ ही किसी अधूरी इच्‍छा या डिप्रेशन के कारण अप्राकृतिक मौत पाने वाले व्‍यक्ति की आत्‍मा अतृप्‍त या असंतुष्‍ट रहती है। ऐसी आत्‍माएं भूत-प्रेत या पिशाच बनकर भटकती रहती हैं।

किसे कहते हैं भूत

जिसका कोई वर्तमान न हो, केवल अतीत ही हो वही भूत कहलाता है। अतीत में अटका आत्मा भूत बन जाता है। जीवन न अतीत है और न भविष्य वह सदा वर्तमान है। जो वर्तमान में रहता है वह मुक्ति की ओर कदम बढ़ाता है।

आत्मा के तीन स्वरुप माने गए हैं

जीवात्मा, प्रेतात्मा और सूक्ष्मात्मा। जो भौतिक शरीर में वास करती है उसे जीवात्मा कहते हैं। जब इस जीवात्मा का वासना और कामनामय शरीर में निवास होता है तब उसे प्रेतात्मा कहते हैं। यह आत्मा जब सूक्ष्मतम शरीर में प्रवेश करता है, तब उसे सूक्ष्मात्मा कहते हैं।

महाभारत में अनेकों कथाएं हैं जो मानव को सन्मार्ग पर ले जाती है। मनुष्य जन्म बहुत पुण्यों से प्राप्त होता है, अतः इसे ऐसे ही नहीं गंवाना चाहिए। कुछ पुण्य कर आने वाले पुनर्जन्म को सुधारना आवश्यक है, धन्य करना श्रेयस्कर है। महाभारत के इस आख्यान में स्पष्ट उल्लेख है कि “आत्म हत्या का विचार भी पाप है।”

प्राचीन काल में काश्यप नामक एक तपस्वी व्यक्ति था। एक दिन किसी वैश्य ने अपने रथ के धक्के से उसे गिरा दिया। गिरने से वह बहुत दुःखी/ आहत हुआ और विचार करने लगा कि “निर्धन मनुष्य का जीवन व्यर्थ है, अतः मैं आत्महत्या करूंगा।” आत्महत्या का प्रयास करने वाले उस काश्यप नामक व्यक्ति के पास स्वयं इन्द्र गीदड़ का रूप धारण कर आए और कहने लगे – महाशय! मानव शरीर बड़ी कठिनाई से प्राप्त होता है, आप शास्त्रज्ञ भी हैं ऐसा दुर्लभ शरीर पाकर उसे इस तरह त्यागना नहीं चाहिए। जिसके पास दो हाथ हैं वह क्या नहीं कर सकता।

मैं हाथ पाने को लालायित हूं। हाथ होने से बढ़कर और क्या है? मेरे शरीर में कहीं कांटे लगे हैं तो कहीं खुजली होती है और अनेक काम हैं जो हाथ से ही हो सकते हैं। जो दुःख बेजुबान प्राणी सहन करते हैं वह आपको सहन नहीं करने पड़ते हैं।

भगवान की कृपा से आप गीदड़, चूहा, सांप, या किसी दूसरी योनि में उत्पन्न नहीं हुए। आप बहुत भाग्यशाली हैं, इतने से ही आपको सन्तुष्ट रहना चाहिए। आत्म हत्या करना बहुत बड़ा पाप है। इस समय मैं (गीदड़) श्रृगाल योनि में हूं जो बहुत नीच योनि है, फिर भी मैं आत्महत्या की बात नहीं सोचता हूं।

यह सब माया का चक्र है, जो नीच तर प्राणी हैं वह भी अपना शरीर त्याग करने की नहीं सोचते हैं । फिर आप ऐसा कु कृत्य क्यों करते हैं। मैं पूर्व जन्म में पण्डित था! उस समय थोथी तर्क विद्या पर मैं बहुत प्रेम करता था और जो व्यक्ति सद् विचार पर लगे रहते थे उन्हें भला-बुरा कह कर बढ़ चढ़ कर बातें करता रहता था, मूर्ख होने पर भी अपने को बड़ा पण्डित मानता था, अतः यह श्रृगाल की योनि मिली जो मेरे कुकर्म का परिणाम है। और अब चाहता हूं कि पुनः मनुष्य योनि मिल जाए। इतना सुनने के बाद काश्यप ने कहा — अरे! तुम तो बहुत कुशल व बुद्धिमान हो।

ऐसा कहकर अपनी ज्ञान दृष्टि से देखा तो ज्ञात हुआ कि यह श्रृगाल तो साक्षात् इन्द्र ही हैं, तब शची पति की पूजा अर्चना की और उनकी आज्ञा पाकर अपने घर लौटे। इस कहानी से यह ज्ञान मिलता है कि मानव तन पाकर किसी भी परिस्थिति में आत्म घात नहीं करना चाहिए। जितना हो सके उतना परोपकार कर लोक हित में अपना जीवन अर्पित करना चाहिए।

आइए परमार्थ चिन्तन करके कुछ अपना व कुछ समाज का भला किया जाय। इसी में लोक कल्याण छिपा है। ध्यान रखना आवश्यक है कि कुसंग का ज्वर भयावह होता है, माया भी कुसंग की तरह ही है, कब तक हम केवल अपने लिए ही जीवित रहेंगे, कुछ समाज के लिए भी करना आवश्यक है। आइए आज समाज हित का चिन्तन करें।

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