सुप्रभातम्: श्रीमद्भागवत वेदरूपी कल्पवृक्ष का है पका हुआ फल

श्रीमद् भागवत वेद रूपी कल्प वृक्ष का पका हुआ फल है। इस फल में न गुठली है न छिलका है। इसमें मात्र अमृत तत्व भरा हुआ है। जीवन भर श्रीमद् भागवत का रस पान करना चाहिए, जब तक जीव को मोक्ष प्राप्त न हो जाए। क्योंकि कलयुग में मानव की आयु कम हो गई है। ऐसे में भगवान का भजन और भगवान की कथाएं ही भगवान का धाम अर्थात मोक्ष प्राप्त करा सकती है। शुकदेवजी ने राजा परीक्षित्‌को यह सुनाई। इस कलियुग में जो लोग अज्ञानरूपी अन्धकार से अंधे हो रहे हैं, उनके लिये यह पुराणरूपी सूर्य प्रकट हुआ है।

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हिमशिखर धर्म डेस्क

एक बार भगवान्‌ विष्णु एवं देवताओं के परम पुण्यमय क्षेत्र नैमिषारण्य में शौनकादि ऋषियों ने भगवत्-प्राप्ति की इच्छा से सहस्र वर्षों में पूरे होने वाले एक महान् यज्ञ का अनुष्ठान किया ॥ एक दिन उन लोगोंने प्रात:काल अग्रिहोत्र आदि नित्य कृत्यों से निवृत्त होकर सूतजी का पूजन किया और उन्हें ऊँचे आसन पर बैठाकर बड़े आदर से यह प्रश्र किया।

ऋषियों ने कहा—सूतजी ! आप निष्पाप हैं। आपने समस्त इतिहास, पुराण और धर्मशास्त्रों का विधिपूर्वक अध्ययन किया है तथा उनकी भलीभाँति व्याख्या भी की है। वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ भगवान्‌ के सगुण-निर्गुण रूप को जानने वाले दूसरे मुनियों ने जो कुछ जाना है—उन्हें जिन विषयों का ज्ञान है, वह सब आप वास्तविक रूप में जानते हैं। आपका हृदय बड़ा ही सरल और शुद्ध है, इसी से आप उनकी कृपा और अनुग्रहके पात्र हुए हैं। गुरुजन अपने प्रेमी शिष्यको गुप्त-से-गुप्त बात भी बता दिया करते हैं। आयुष्मन् ! आप कृपा करके यह बतलाइये कि उन सब शास्त्रों, पुराणों और गुरुजनोंके उपदेशोंमें कलियुगी जीवों के परम कल्याण का सहज साधन आपने क्या निश्चय किया है।

(शौनकादि ऋषि, सूतजी से कह रहे हैं) आप संत समाज के भूषण हैं । इस कलियुग में प्राय: लोगों की आयु कम हो गयी है। साधन करने में लोगोंकी रुचि और प्रवृत्ति भी नहीं है। लोग आलसी हो गये हैं। उनका भाग्य तो मन्द है ही, समझ भी थोड़ी है। इसके साथ ही वे नाना प्रकार की विघ्र- बाधाओंसे घिरे हुए भी रहते हैं। शास्त्र भी बहुत-से हैं। परन्तु उनमें एक निश्चित साधन का नहीं, अनेक प्रकारके कर्मों का वर्णन है। साथ ही वे इतने बड़े हैं कि उनका एक अंश सुनना भी कठिन है। आप परोपकारी हैं। अपनी बुद्धि से उनका सार निकालकर प्राणियोंके परम कल्याण के लिये हम श्रद्धालुओं को सुनाइये, जिससे हमारे अन्त:करण की शुद्धि प्राप्त हो। प्यारे सूतजी ! आपका कल्याण हो। आप तो जानते ही हैं कि यदुवंशियों के रक्षक भक्तवत्सल भगवान्‌ श्रीकृष्ण वसुदेव की धर्मपत्नी देवकी के गर्भ से क्या करने की इच्छासे अवतीर्ण हुए थे। हम उसे सुनना चाहते हैं। आप कृपा करके हमारे लिये उसका वर्णन कीजिये; क्योंकि भगवान्‌का अवतार जीवों के परम कल्याण और उनकी भगवत्प्रेममयी समृद्धि के लिये ही होता है।

जिससे इस जगत् की सृष्टि, स्थिति और प्रलय होते हैं—क्योंकि वह सभी सद्रूप पदार्थों में अनुगत है और असत् पदार्थोंसे पृथक् है; जड नहीं, चेतन है; परतन्त्र नहीं, स्वयंप्रकाश है; जो ब्रह्मा अथवा हिरण्यगर्भ नहीं प्रत्युत उन्हें अपने संकल्प से ही जिसने उस वेदज्ञान का दान किया है; जिसके सम्बन्ध में बड़े-बड़े विद्वान् भी मोहित हो जाते हैं; जैसे तेजोमय सूर्यरश्मियों में जल का, जलमें स्थल का और स्थल में जल का भ्रम होता है, वैसे ही जिसमें यह त्रिगुणमयी जाग्रत्-स्वप्न-सुषुप्तिरूपा सृष्टि मिथ्या होनेपर भी अधिष्ठान-सत्तासे सत्यवत् प्रतीत हो रही है, उस अपनी स्वयंप्रकाश ज्योति से सर्वदा और सर्वथा माया और मायाकार्य से पूर्णत: मुक्त रहनेवाले परम सत्यरूप परमात्मा का हम ध्यान करते हैं।

महामुनि व्यासदेव के द्वारा निर्मित इस श्रीमद्भागवतमहापुराण में मोक्षपर्यन्त फल की कामना से रहित परम धर्म का निरूपण हुआ है। इसमें शुद्धान्त:करण सत्पुरुषों के जानने योग्य उस वास्तविक वस्तु परमात्मा का निरूपण हुआ है, जो तीनों तापों का जड़ से नाश करनेवाली और परम कल्याण देनेवाली है । अब और किसी साधन या शास्त्र से क्या प्रयोजन। जिस समय भी सुकृती पुरुष इसके श्रवण की इच्छा करते हैं, ईश्वर उसी समय अविलम्ब उनके हृदय में आकर बन्दी बन जाता है।

रसके मर्मज्ञ भक्तजन ! यह श्रीमद्भागवत वेदरूप कल्पवृक्ष का पका हुआ फल है । श्रीशुकदेवरूप तोते के [यह प्रसिद्ध है कि तोते का काटा हुआ फल अधिक मीठा होता है] मुखका सम्बन्ध हो जाने से यह परमानन्दमयी सुधासे परिपूर्ण हो गया है । इस फलमें छिलका, गुठली आदि त्याज्य अंश तनिक भी नहीं है। यह मूर्तिमान् रस है । जब तक शरीरमें चेतना रहे, तब तक इस दिव्य भगवद्-रसका निरन्तर बार-बार पान करते रहो । यह पृथ्वी पर ही सुलभ है ॥

धर्म का फल है मोक्ष। उसकी सार्थकता अर्थ-प्राप्ति में नहीं है। अर्थ केवल धर्मके लिये है। भोगविलास उसका फल नहीं माना गया है ॥ भोगविलासका फल इन्द्रियोंको तृप्त करना नहीं है, उसका प्रयोजन है केवल जीवन- निर्वाह। जीवनका फल भी तत्त्वजिज्ञासा है। बहुत कर्म करके स्वर्गादि प्राप्त करना उसका फल नहीं है ॥ तत्त्ववेत्ता लोग ज्ञाता और ज्ञेयके भेद से रहित अखण्ड अद्वितीय सच्चिदानन्दस्वरूप ज्ञानको ही तत्त्व कहते हैं। उसीको कोई ब्रह्म, कोई परमात्मा और कोई भगवान्‌के नामसे पुकारते हैं॥ श्रद्धालु मुनिजन भागवत-श्रवणसे प्राप्त ज्ञान-वैराग्ययुक्त भक्तिसे अपने हृदयमें उस परमतत्त्वरूप परमात्मा का अनुभव करते हैं ॥ शौनकादि ऋषियो ! यही कारण है कि अपने-अपने वर्ण तथा आश्रमके अनुसार मनुष्य जो धर्म का अनुष्ठान करते हैं, उसकी पूर्ण सिद्धि इसीमें है कि भगवान्‌ प्रसन्न हो ॥ इसलिये एकाग्र मनसे भक्तवत्सल भगवान्‌ का ही नित्य-निरन्तर श्रवण, कीर्तन, ध्यान और आराधन करना चाहिये ॥

कर्मों की गाँठ बड़ी कड़ी है। विचारवान् पुरुष भगवान्‌के चिन्तन की तलवार से उस गाँठ को काट डालते हैं। तब भला, ऐसा कौन मनुष्य होगा, जो भगवान्‌की लीलाकथा में प्रेम न करे ॥ शौनकादि ऋषियो ! पवित्र तीर्थोंका सेवन करनेसे महत्सेवा, तदनन्तर श्रवणकी इच्छा, फिर श्रद्धा, तत्पश्चात् भगवत्-कथामें रुचि होती है ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्ण के यशका श्रवण और कीर्तन दोनों पवित्र करने वाले हैं। वे अपनी कथा सुननेवालोंके हृदयमें आकर स्थित हो जाते हैं और उनकी अशुभ वासनाओंको नष्ट कर देते हैं; क्योंकि वे संतोंके नित्यसुहृद् हैं।

चक्रपाणि भगवान् ‌की शक्ति और पराक्रम अनन्त हैं—उनकी कोई थाह नहीं पा सकता। वे सारे जगत् के निर्माता होनेपर भी उससे सर्वथा परे हैं। उनके स्वरूप को अथवा उनकी लीलाके रहस्यको वही जान सकता है, जो नित्य-निरन्तर निष्कपट भाव से उनके चरणकमलों की दिव्य गन्ध का सेवन करता है—सेवा-भावसे उनके चरणों का चिन्तन करता रहता है। शौनकादि ऋषियो ! आप लोग बड़े ही सौभाग्यशाली तथा धन्य हैं जो इस जीवनमें और विघ्र-बाधाओं से भरे इस संसार में समस्त लोकों के स्वामी भगवान्‌ श्रीकृष्ण से वह सर्वात्मक आत्मभाव, वह अनिर्वचनीय अनन्य प्रेम करते हैं, जिससे फिर इस जन्म-मरणरूप संसारके भयंकर चक्रमें नहीं पडऩा होता।

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