हिमशिखर धर्म डेस्क
हमारे अनेक संत-महात्माओं ने इस एक संवाद को अलग-अलग ढंग से बोला है। विवेकानंद कहते थे, उठो-बढ़ो। बुद्ध ने कहा, उठो-आभार व्यक्त करो। महावीर ने कहा था कि उठो, रुक मत जाओ। ऐसे सभी संत उठो और चलो की बात करते हैं।
इसका क्या मतलब है? उठो का अर्थ है होश में आओ। और चलो का अर्थ है सक्रिय रहो। ये दो विशेषताएं हमारे भीतर होना ही चाहिए और इन दो विशेषताओं को खंडित करती है नशे की वृत्ति, जो इन दिनों बढ़ती जा रही है। लगातार खबरें आ रही हैं और नशे ने ऐसे-ऐसे दृश्य दिखाना शुरू कर दिए हैं कि इन्हें कहने तक में लज्जा आती है।
यूं तो बुराई, बुराई में भी नहीं है। वरना भगवान बुराई बनाता क्यों? लेकिन भगवान ने कहा है कि तुम्हें अपना विवेक जगाना है। अगर विवेक जागा है, तो बुराई आपका कुछ नहीं कर सकती। अगर विवेक सोया है, तो यही बुराई बर्बाद कर सकती है। इसलिए नशे जैसी बुराई के लिए उठो-चलो। यानी होश में रहो और सक्रिय रहो। इस नशे के नर्क से अपने आपको बचाओ।
आधुनिक युग में मनुष्य अल्पायु होता जा रहा है। आज का जीवन इतना अप्राकृतिक हो चला है कि उसकी आयु क्षीण होती जा रही है। जीवन तो अक्षय है, उसका उत्तरोत्तर विकास हो सकता हे। लेकिन हम स्वयं अपनी गलतियों और मूर्खताओं से जीवन की रस्सी को काट देते हैं।
अल्पायु का प्रधान कारण है समय ‘‘पूर्व अपनी शक्तियों का अपव्यय करना।’’ शक्तियां यदि उसी अनुपात में बढ़ती रहें, जिस अनुपात में व्यय होती हैं तब तो स्वास्थ्य बना रह सकता है, किंतु यदि उन्हें फिजूलखर्च किया जाए, तो कब तक जीवन रह सकता है? शक्तियों का अपव्यय हम अनेक विधियों से करते हैं। कैसे खेद का विषय है कि लोग जानते तक नहीं कि वे शक्तियों का अपव्यय कर रहे हैं और वे मूर्खता भरे अंधकार में अपना सर्वनाश किया करते हैं। जीवन शक्ति का अपव्यय मुख्यत निम्न प्रकार से होता है-
नशेबाजी – संसार में जितने भी मादक द्रव्य हैं, उनका शरीर पर बड़ा घातक प्रभाव पड़ता है। हम चाहते हैं कि कभी-कभी दवाई के रूप में इनका उपयोग होता है, लेकिन आजकल तो धड़ाधड़ मादक द्रव्यों का प्रचार बढ़ रहा है। मुनष्य बुद्धि शून्य होकर राक्षस बना दिखता है। शराब को लीजिए। बुरी समझते हुए भी अनेक व्यक्तियों ने इसे अपना लिया है। संसार के डाॅक्टर आज इस नतीजे पर पहुंच चुके हैं कि शराब का विष अनेक रोगों का जनक है। शराब का उपयोग कई लोग शौक से करते हैं। उन्हें मालूम नहीं कि यह शरीर परमेश्वर का मंदिर है। इसमें परमेश्वर विराजते हैं। शराब मानव शरीर का विनाश कर देता है। ‘‘शराब कार्य शक्ति को घटाती है, रोजी छूट जाती है, मनुष्य बाल बच्चों का पोषण नहीं कर पाता, गृह सौक्य का नाश हो जाता है। मानव जाति के सर्वनाश के लिए शराब की उत्पत्ति हुई है और व्यभिचार में गाढ़ी मित्रता है। जहां’-जहां शराब है, वहां-वहां व्यभिचार भी जरूर होता हे। शराब पीते ही नीति अनीति की भावना तथा आत्म संयम धूल में मिल जाता है और शराबी ऐसी-ऐसी कुचेष्टाएं करने लगते हैं, जो अच्छी हालत में वे स्वप्न में भी नहीं करते।’’
अफीम और तम्बाकू शरीर के रक्त को सूखा डालते हैं, मंदाग्नि उत्पन्न करते हैं। अफीम से बालक तक निःसत्व हो जाते है। नियमित रूप से अफीम का प्रयोग करने वाले व्यक्ति को कई बीमारियां हो जाती हैं।
भांग, गांजा, चरस-ये सब प्रत्यक्ष विष है। चाय और काफी में कैफीन, टैफीन इत्यादि विष मले हुए होते हैं। चाय में थीन नामक जहर होता है। चाय और काफी पीने से दांतों की जड़ें कमजोर हो जाती हैं। स्नायुओं को क्षणिक उत्तेजना तो मिलती है, किन्तु शक्ति या रक्त नहीं बढ़ने पाता।
स्मरण रखिए, मादक पदार्थ विषैले हैं। आपकी आयु, बल, बुद्धि, उत्साह और नैतिकता का ह्रास करने वाले हैं। इनका पान जहर का पान है। खतरों से भरा है, आत्म हत्या के बराबर है। आप जानते हुए भी क्यों विषपान कर रहे हैं?
व्यभिचार – यह पाप वह भयंकर राक्षस है, जो देखते-देखते मनुष्य के पतन का कारण बनता है। आज का बहुत सा साहित्य हमारी भोली जनता को मृत्यु के मुंह में धकेल रहा है। व्यभिचार वह सामाजिक बुराई है, जो प्रत्येक राष्ट्र के लिए हानिकारक है। स्त्री पुरूष के सत्व को नष्ट करने के अनेक नए तरीके निकाल लिए हैं, जिन्हें कहना और चर्चा करना भी पाप है। स्मरण रखिए, आप व्यभिचार कर जगत की आंखों से बच सकते हैं, किंतु प्रकृति बड़ी कठोर है। व्यभिचार का दंड उसके दरबार में रोगों के रूप में मिलता है।
चटोरापन – कुछ लोग चाट, पकौड़ी, मिठाइयां, बाजारू मसालेदार पकवान इत्यादि आवश्यकता से अधिक खाते हैं। भूख न होने पर भी वे पेट को इन जायकेदार वस्तुओं से भर डालते हैं। आवश्यकता से अधिक केवल स्वाद के लिए खाना अपनी कब्र दातों से खोदना है। बड़े शहरों में रहने वाले फैशनेबल व्यक्तियों को चटोरापन की आदत बड़ी कमजोरी है। इसलिए अनियमित आहार विहार न कर बैठंे। बड़ी सोच समझ कर चलें।
मानसिक दुर्बलताएं-मृत्यु को पास लाने में मानसिक उद्वेग, क्लेश, दुख, निराशा, कुढ़न, अहितकर चिंतन इत्यादि विकारों का बड़ा हाथ है। ये शत्रु दिखते नहीं, किंतु अंदर ही अंदर शरीर को जर्जर कर देते हैं।
प्रकृति नहीं चाहती है कि हम इन विकारों के वशीभूत होकर जीवन का क्षय कर दें। प्रकृति ने हमें पूर्ण निरोग, आनंद और प्रसन्नता में रहने वाला प्राणी बनाया है। अनाकांक्षित विकार सब मानसिक शक्ति के अधीन हैं। मानसिक शक्ति द्वज्ञरा यदि श्रद्धापूर्वक आत्मविश्वास धारण किया जाए तो ये विकार सुगमता पूर्वक दूर किए जा सकते हैं
प्रकृति बड़ी दयालु और चतुर है। वह प्रत्येक मनुष्य को अपनी कमजोरियां सुधारने का अवसर प्रदान करती है। जब हम उत्साह, आनंद, आशा, प्रेम, सत्य की बात सोचते हैं तो ह्रदय में नवजीवन का संचार होने लगता है। नसों में नया जोश, नवीन उत्साह आता है। लेकिन जब हम अवांछित मनोविकारों में फंसते हैं तो हमारी कार्य शक्तियां पंगु हो जाती हैं।
नशे से बचने के इन पुख़्ता उपायों को हमें अमल में लाना होगा।