भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में हुए विकास से हमने बहुत से सुविधाजनक साधन (उपकरण) खोज लिए हैं। इनके उपयोग से हमें अधिक समय मिलना चाहिए था, लेकिन इन सुविधाओं में हम इतने ज्यादा फंस गए हैं कि समय की कमी पड़ गई है। हमें इतना भी वक्त नहीं मिलता कि हम अपने अंदर झांक सकें और अपने जीवन के उद्देश्य को परख सकें। इस प्रकार हम आध्यात्मिकता से दूर हो रहे हैं। आज हम लोगों का जीवन इतना व्यस्त हो गया है कि हमें आराम के लिए भी समय नहीं मिलता। एक दिन हम खुद से यह सवाल करते हैं कि क्या हमारे जीवन का उद्देश्य केवल जन्म लेना, बड़ा होना, अपनी जिम्मेदारियों को निभाना और मृत्यु को प्राप्त करना ही है या इसके अलावा भी कुछ और है। संत-महापुरुष कहते हैं कि मनुष्य जीवन के तीन पहलू हैं-1. बौद्धिक, 2. शारीरिक और 3. आध्यात्मिक। हमें इन तीनों पहलुओं को ध्यान में रखते हुए खुद को आगे बढ़ाना चाहिए। हम बौद्धिक और शारीरिक विकास में तो बहुत प्रगति कर चुके हैं, लेकिन दुर्भाग्य से हम अपने आध्यात्मिक पहलू को भूल गए हैं। हम खुशनसीब हैं कि हमने मनुष्य जन्म पाया है। अपने इस जीवन में यदि हम अपने आध्यात्मिक विकास के लिए समय नहीं निकालेंगे तो हम अपना ध्येय पूरा नहीं कर सकेंगे।
हिमशिखर धर्म डेस्क
मछलियों को लगता है कि जिस तरह वे तड़पती हैं पानी के लिए, पानी भी उनके लिए वैसे ही तड़पता होगा। लेकिन जैसे ही मछलियों को पकड़ने वाला जाल खींचा जाता है, पानी मछलियों को छोड़ कर जाल के छिद्रों से बाहर निकल भागता है। हमने भी सांसारिक उपलब्धियों, सुविधाओं को लेकर ऐसा ही भ्रम पाल रखा है। अपने स्वस्थ्य और नैतिक मूल्यों को दांव पर लगा कर हम बड़ी-बड़ी गाड़ियां, आलीशान भवन, सुख-सुविधाओं के कितने ही उपकरण जुटाते हैं। गाड़ी में जरा सा डेंट आ जाए, कोई उपकरण सुविधा देना बंद कर दे या भवन के किसी कंगूरे में दरार दिख जाए तो मन व्याकुल हो उठता है। यह सब हमारी एकांगी आसक्ति है। वास्तविकता तो यह है कि जब हम इस संसार से विदा लेंगे तो हमारी लाड़ली कार, विशाल अट्टालिका और वे सारे उपकरण हमारी विदाई पर लेशमात्र उदास नहीं होंगे।
हमसे बेहतर सोच तो पक्षियों की है। वे उन चीजों को पीछे छोड़ देते हैं जिन्हें साथ ले जाना जरूरी नहीं है। क्यों न हम भी ईर्ष्या, वैमनस्य, उदासी, भय और पश्चाताप के भार से मुक्त होकर उड़ना शुरू करें। तभी जानेंगे कि जिंदगी कितनी खूबसूरत है। आवश्यकता से अधिक संपदा का संग्रह हमें अपनी अंतरात्मा से विलग करता है। आत्मा या भावना से संबंध समाप्त होते ही उस खालीपन को भरने के लिए हम बाहरी स्रोतों जैसे शक्ति या संपदा के संचय पर अधिकाधिक आश्रित होते जाते हैं। जैसे-जैसे हम संपन्नता प्राप्त करते जाते हैं, वैसे ही वैसे हमारा जीवन रसहीन और खोखला होता जाता है। सुबह तैयार होकर मानो आखेट पर निकल पड़ते हैं। लौटते हैं देर रात को और सीधे बिस्तर की ओर भागते हैं।
इसके लिए उच्च स्तर के आंतरिक फोकस और प्रतिबद्धता की आवश्यकता है। धन इसमें बाधक नहीं, धन तो सापेक्ष है, उसका संग्रह और उस संग्रह की सुरक्षा समस्या है। इस संग्रह और सुरक्षा में हम आध्यात्मिक विकास की ओर उतना ध्यान नहीं दे पाते जितना अपेक्षित होता है। नतीजा यह कि हम आध्यात्मिकता के प्रमुख ध्येय अहं, क्रोध, लालच, वासना और आसक्ति से मुक्त नहीं हो पाते। इन बुराइयों के चंगुल में फंसे रह जाते हैं। एक बुराई से निकलकर दूसरे में पहुंचते हैं और इस तरह बुराई के दुष्चक्र में पड़े अपनी सुख-शांति की बलि चढ़ाते रहते हैं। एक और गड़बड़ यह होती है कि हम भौतिक समस्याओं पर तो ध्यान केंद्रित करते हैं, लेकिन उनको पैदा करने वाली मनोवृत्ति और आंतरिक समस्याओं की उपेक्षा करते रहते हैं। जबकि आंतरिक समस्याओं के निवारण होते ही भौतिक समस्याओं का स्वयं ही समाधान हो जाता है।