सुप्रभातम् :राजा परीक्षित और कलयुग का आगमन

हिमशिखर धर्म डेस्क

Uttarakhand

द्वापर युग के अंतिम चरण में पांडव अभिमन्यु के पुत्र परीक्षित को भूमंडल का अधिपति बनाकर स्वयं स्वर्गारोहण की यात्रा पर चले जाते हैं। इधर परीक्षित अपने पूर्वजों की कीर्ति के अनुकूल संपूर्ण भूमंडल पर शासन करने लगे, उनके राज्य में सर्वत्र सुख शांति वैभव की सरिता निरंतर बह रही थी।

एक दिन राजा परीक्षित ने अपने राजकोष के भवनों का निरीक्षण किया। उसी समय एक भवन में उन्होंने देखा, कि एक बहुत बड़ा देदीप्यमान मणि माणिक्य से जड़ा हुआ एक सुंदर मुकुट रखा हुआ था। उस मुकुट की शोभा को देखकर के राजा बहुत ही प्रसन्न हुए। उस मुकुट को अपने मस्तक पर धारण कर‌ अपनी कुछ सैनिक टुकड़ियों के साथ अश्व पर आरूढ़ होकर वन में आखेट खेलने के लिए चले जाते हैं।

उसी समय उन्होंने वन में एक आश्चर्यजनक घटना देखी, उन्होंने देखा कि एक काले वर्ण का चांडाल पुरुष एक गौ माता व उसके बछड़े को चाबुक से बुरी तरह से मार रहा था। गौमाता आंखों से अश्रु धारा बहाती हुई य आगे आगे दौड़ रही थी और वह चांडाल गौ माता के पीछे दौड़ रहा था। तब राजा परीक्षित ने ऐसी घटना देखी, राजा परीक्षित ने अपने धनुष पर बाण चढाकर क्रोध से उस चांडाल पुरुष को सावधान करते हुए बोले हे चांडाल पुरुष! सावधान मैं तुम्हें अभी यमलोक की यात्रा कराता हूं।

क्योंकि शायद तुम नहीं जानते हो यह राजा परीक्षित का शासन है और उनके रहते हुए तुम इस प्रकार गौ माता पर अत्याचार नहीं कर सकते हो, वह पुरुष कांपने लगा और विलाप करता हुआ परीक्षित जी के चरणों में गिर गया और कहने लगा भगवान मुझे क्षमा करना, मुझे ब्रह्मदेव ने भेजा है मेरा नाम कलयुग है और अब मेरा समय आ गया है भगवन मै क्या करूं क्योंकि ब्रह्मा जी ने मेरा स्वभाव ऐसा ही बनाया है।

अधर्म में मेरी सहज रुचि है पाप कर्म में मेरा मन अधिक लगता है। तब राजा परीक्षित ने कहा कि तुम्हारे अंदर बुरे कर्मों के साथ-साथ कोई अच्छा कर्म भी है तब कलयुग बोला भगवान मेरे अंदर 100 में से 99 बुराइयां है और एक अच्छाई है और वह एक अच्छाई ऐसी है जो अब तक किसी भी काल में नहीं थी तब परीक्षित ने पूछा कलयुग बताओ वह कौन सी अच्छाई है जो अब तक किसी भी काल में नहीं थी, तब कलयुग बोला कि जो मनुष्य उठते बैठते कभी भी प्रभु का स्मरण करेगा , इस नाम स्मरण मात्र से ही वह इस भवसागर से पार हो कर मोक्ष को प्राप्त कर सकता है।

जब राजा परीक्षित ने कलयुग के अंदर नाम स्मरन की इतनी बड़ी विशेषता को जाना तो कलयुग के प्राणियों के कल्याण के लिए कलयुग का प्राणांत नहीं किया, और कहने लगे हे कलयुग तुम्हारी इसी एक अच्छाई के कारण में तुम्हें प्राण दान देता हूं लेकिन ध्यान रहे जब तक मेरा शासन रहेगा तब तक तुम नहीं आ सकते हो मेरे शासन के बाद ही तुम्हारा प्रवेश हो सकता है।

तब कलियुग हाथ जोड़कर के राजा परीक्षित की बात को स्वीकार करता हैं, और कहने लगा कि भगवन जब तक आप का शासन है तब तक मुझे रहने के लिए कोई उचित स्थान दीजिए जहां में निवास कर आप के शासन के समाप्त होने की प्रतीक्षा कर सकूं।

तब राजा परीक्षित ने कहा देखो कलयुग तुम अपवित्रता , मद्यपान ध्दुय क्रीड़ा में तुम्हारा निवास होगा, तब कलयुग कहने लगा भगवान आपने मेरे लिए जितने भी स्थान बताएं हैं वे सारे के सारे अपवित्र हैं कृपा करके कोई एक अच्छा सा स्थान और बता दीजिए तब परीक्षित ने कहा कि हे कलयुग तुम पाप कर्म से प्राप्त स्वर्ण में भी तुम्हारा निवास हो सकेगा, तब राजा परीक्षित ने कलयुग को रहने की लिए ये स्थान बताएं तत्काल कलयुग अपना शरीर छोड़ कर के अदृश्य होकर के राजा परीक्षित का जो स्वर्ण का मुकुट था उसमें बैठ जाता है।

और उधर राजा परीक्षित ने गौ माता और गोवत्स साक्षात धर्म को आश्वस्त किया की हे पृथ्वी देवी मां और हे साक्षात भगवान धर्म मैं आश्वस्त करता हूं कि मेरे शासक के रहते हुए किसी भी प्रकार से तुम्हें कोई नहीं सता सकता है। ऐसा कह कर राजा परीक्षित ने गोवत्स जो साक्षात धर्म है उसके जो तीन पैर चांडाल ने तोड़ दिए थे दया धर्म पवित्रता और सत्य इनको जोड़ दिए , ऐसा आश्वासन देकर पृथ्वी देवी स्वरूपा गौमाता और धर्म स्वरूप गोवत्स राजा परीक्षित को शुभ आशीष दे कर वहां से चले जाते हैं।

जब राजा आखेट खेलने के लिए आगे गये, मार्ग में राजा को प्यास लगती , राजा का गला सूख जाता है जब चारों तरफ नजर फैलाकर के राजा परीक्षित ने देखा कि कहीं पानी का स्रोत हो लेकिन कहीं पर भी जब पानी का स्रोत दिखाई नहीं दिया, अंत में परीक्षित ने देखा कि पास में किसी मुनि का आश्रम है वही जा कर मुझे जलपान करना चाहिए राजा पानी की प्यास बुझाने के लिए मुनि के आश्रम पर पहुंच जाता है।

वहां जाकर देखा कि लोमस मुनि आंखें मूंदे हुए ईश वंदना कर रहे हैं। राजा परीक्षित ने जोर से आवाज लगाई, हे मूनि मुझे प्यास लग रही है और मैं राजा परीक्षित आपसे जल की याचना करता हूं, जब राजा ने बार-बार ऐसा निवेदन किया लेकिन लोमस मुनि अपनी ध्यान में मग्न थे उन्हें पता ही नहीं था कि कोई उन्हें आवाज दे रहा है जब मुनि का ध्यान भंग नहीं हुआ, राजा परीक्षित को क्रोध आ गया और उसने सोचा कि यह पाखंडी मुनि मुझे देख करके आंखें बंद करके ईश्वर ध्यान का ढोंग कर रहा है ऐसा विचार करके राजा परीक्षित ने वहां पर एक काला मरा हुआ सर्प पड़ा हुआ था उसे अपने बाण से उठाया और लोमस ऋषि के गले में डाल दिया और वहां से राजा परीक्षित लौट कर के अपनी राजधानी आ जाते हैं।

जब राजा परीक्षित अपने भवन में आकर के मुकुट उतारा राजा को ज्ञान हुआ तो सोच कर कहने लगा कि कंचन में एक कलयुग का वास है यह मेरे शीश पर था इसी से मेरी ऐसी कुमति हुई जो मरा सर्प मुनि के गले में डाल दिया।सो मैं अब समझा कि कलयुग ने मुझे से अपना पलटा लिया है। इस पाप से मैं कैसे मुक्त हो हूंगा, मैंने ब्राह्मण को सताया है।

राजा परीक्षित इस प्रकार सोच के सागर में डूबे रहे थे। और जहां लोमस ऋषि थे वहां कुछ एक लड़के खेलते हुए, आऐ उन्होंने लोमश ऋषि के गले मेंं मरा हुआ सर्प देखा तो अचंभित रह गए। उनमें से किसी ने कहा की इनकेे पुत्र श्रृंगी को जा कर के बताना चाहिए जो इस समय ऋषि कुमारों केे साथ खेल रहा है जब ऋषि कुमारों ने लोमस ऋषि के पुत्र श्रृंगी को सारा वृतांत बताया ऋषि कुमार श्रृंगी की आंखें लाल लाल हो गई हॉट फड़फड़ानेे लगी क्रोध करके ऋषि कुमार श्रृंगी नेेे अपने हाथ में जल लिया और श्राप दियाा कि जिसने भी मेरे पिताजी के गलेे में मरा हुआ नाग डालाा है वहीं नाग आज सेेेे सातवें दिन उसे डसेगा।

इस प्रकार श्रृंगी राजा को श्राप देखकर अपने पिता के पास जा कर गले से साप निकाल कर कहने लगा हे पिताजी तुम अपनी देह संभालो मैंने उसे साप दिया है जिसने आपके गले में मरा नाग डाला था, यह सुनते ही लोमस ऋषि ने ध्यान हटा करके अपनी दिव्य दृष्टि से देखा कि पुत्र श्रृंगी ने राजा परीक्षित को श्राप दे दिया, लोमस ऋषि अपने पुत्र श्रृंगी से कहने लगे अरे पुत्र तूने यह क्या किया क्यों राजा को श्राप दिया उसके राज्य में हम सुखी थे पशु-पक्षी भी दुखी नहीं थे ऐसा धर्म राज्य था कि जिसमें सिंह गाय एक साथ रहते हैं।

उसे श्राप क्यों दिया तनिक दोष पर इतना बड़ा श्राफ तूने दे दिया। तूने बहुत बड़ा पाप किया है। कुछ विचार मन में नहीं किया गुण छोड़ अवगुण ऊपर तुमने विचार किया साधु को चाहिए शील स्वभाव से रहे आप कुछ ना कहे औरों की सुनले। तब लोमस ऋषि ने एक शिष्य को बुलाकर कहा तुम राजा परीक्षित को जाकर सचेत कर दो कि तुम्हें श्रृंगी ऋषि ने शाप दिया है जिससे राजा कुछ सचेत हो जाए गुरु की आज्ञा पाकर शिष्य राजा परीक्षित के भवन में गया।

वहां जाकर देखा राजा परीक्षित शोक मग्न हो रहे हैं और अपार सोच सागर में डूब रहे थे तब शिष्य ने राजा परीक्षित से कहा कि भगवन तुम्हें श्रृंगी ऋषि ने यह श्राप दिया है कि आज से सातवें दिन काला नाग तक्षक तुम्हें डसेगा। सुनते ही राजा प्रसन्नता से खड़ा हो हाथ जोड़ कहने लगा कि मुनि ने मुझ पर बड़ी कृपा की जो श्राप दिया क्योंकि माया मोह के अपार सुख सागर में पढ़ा था तो निकाल बाहर किया।

जब मुनि का शिष्य विदा हुआ, तब राजा ने वैराग्य धारण किया और अपने पुत्र जनमेजय को बुलाया राज्य पाट देखकर कहा बेटा गो ब्राह्मण की रक्षा करना और प्रजा को सुख प्रदान करना, राजा को वैराग्य लिए हुए जानकर रानी सब उदास होकर राजा के पांव पर गिर रो रो कर कहने लगी, महाराज हम भी तुम्हारे साथ ही चलेंगे , राजा बोला सुनो स्त्री को उचित है उससे अपने पति का धर्म रहे सो करें उत्तम कार्य में बाधा ना डालें इतना कहकर राजा परीक्षित धन कुटुंब और राज्य की माया को छोड़कर निर्मोही होकर योग साधना के लिए गंगा के तट पर जा बैठे,।।

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